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किरण]
चन्द्रगुप्त-चायाक्य इतिवृन के जैन अाधार'
और यह ग्रन्थ अपनी भाषा संबंधी तथा पाठगत विशेषताओं की दृष्टि से प्रथम शताब्दी ईस्वी का हो सकता है। किन्तु 'भगवती आराधना' स्वयं उक्त अनुश्रुति का मूल स्रोत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि उक्त उपाख्यान संग्रह के द्वारा इस अनुश्रुति को और अधिक प्राचीनतर काल तक लक्षित किया जा सकता है। वस्तुतः, चागाक्य-चन्द्रगप्न अनुश्रति के पाषाणावशेष 'पयन्नों' के साहित्यिक स्तर में जड़े प्राप्त होते हैं. (अर्थात् पयत्ने) जैसा कि ज्ञात है, श्वेताम्बरों के आगम साहित्य और दिगम्चों के 'अङ्गवायन' का अङ्ग है। दश फ्यन्नों में से वे दो जिनमें उक्त अनुश्रुति का बीजभूतक में उपलब्ध होता है, 'भट्ट परिन्ना' और 'संथार'। इन दोनों में ही जैनमुनि के रुप में चागाय को मूल कथा वतमान जैनधर्म के प्रस्थापक भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित एवं स्वीकृत धार्मिक आचरण के समर्थन एवं दृष्टान्त रूप में, सर्वा प्रथम उपलब्ध होती है। पात्रों की तिथि सुनिश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, किन्तु इस बात को ध्यान में रखते हए कि मुविस्त पात् दिगम्बराचार्य, निग्रन्थ दार्शनिक कुन्दकुन्द और उनके सुयोग्य शिष्य मानिने...जो कि दोनों ही प्रथम शताब्दी ईस्वी के प्रारंभिक भाग में डाअम दिवा अगर
६ हमने यह तिथि अनुमानतः प्रस्तुत की है क्योंकि वह माय: लीक ही मालभ होनी है। तथापि इस सम्बंध में और अधिक बोज वान्छनीय है। हाल में ला सुबिन संकन नहीं मिलता कि शिवाय कुन्दकुन्द और उमामामि यता --- .. माना है.--
(नया Zee ... V. Rudra) (नोट-शिवा के समय के सम्बंध में
....... " नी और जब कतमी अभिनन्दन ग्रन्ध । ---- ७ दिगम्बा द्वादशा शूल से इतर पगार साहिब का
में है। ८ देखिये-चतुः शरणादिभरा मान्यता की रक्षा (मादा किरण नं०४६), भट्टपरिन्ना पद्य १६२; संचार प.. ७१-७५
९ यदि दिगम्बर पदावलि को विभागात माना जाय नी में उबावामी को प्रथम शताब्दी ई० (वि० सं० १०१ = ४४ ई.) का विद्वान मानना होगा, किन्तु ये पहावलियां, चाहे श्वेताम्बरों की हो अथवा दिगम्बरों की. परस्पर इतनी विरूध में कि उनके द्वारा प्रस्तुत निधिक्रमों पर परा भरोसा करना कठिन है। सरस्वती गच्छ को दिगम्बा पटावलि के उमास्वामी सबाह द्वि.. से जो कि भ० महावीर के पश्चात् अवे गुरु थे (यहां लेबक को भ्रम हु , विविक्षित भद्रबाह दि. ७ वें नहीं २७ वें गुरु थे, भद्रबाहु प्रथम व थे) और ५३ ई. पू० (वि. सं. ४ में मृत्यु को प्राप्त हुए छठे गुरु थे। और श्वे० तपागच्छ पदावलि के अनुसार आर्य महागिरि (मृत्यु वा नि. २९१, तथा खरतरग पट्ट के अनुसार वी० नि० २४९) से, जो महावीर स्वामी के पश्चात वें गुरु थे. द्वितीय गुरु थे। अत: हमें उनको २ री० शत० ई. जितना पीछे का विद्वान मानना किसी प्रकार उचित नहीं है (Ind. Aut. XI-p. 446 and 251; XXp. 351) पूर्ण सम्भावना इसी बात की है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी दोनों ही ७५ ई० पू० से ५० ई० के बीच हुए। (नोट-यद्यपि लेखक की अन्तिम अनुमानित तिथि प्रायः ठीक है, तथापि गुरु परम्पराक समयादि वटि पूर्ण हैं)