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[ भाग १५
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संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़ के विद्वान् थे। गुणधर्म ने गंगराजा ऐरेयप्प के समय में 'हरिवंश' की रचना की थी । इन्हीं के समकालीन कवि पम्प बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं, इन्हें कविता गुणार्णव, पूर्णवि, सज्जनोत्तम आदि विशेषणों से सम्बोधित किया गया है । इस महाकवि ने लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर श्रादिपुराण, विक्रमार्जुन विजय, लघुपुराण, पार्श्वनाथपुराणं और परमार्ग नामक ग्रन्थों की रचना की है।
पम्प के समकालीन महाकवि पोन और रन भी हैं। इन दोनों कवियों ने भी कन्नड़ साहित्य की श्रीवृद्धि में अपूर्व योग दिया है। पोन्न का शान्तिनाथपुराण और रन्न का अजिननाथपुराण कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं । इनके अतिरिक्त श्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने उभय भाषाओं में ग्रन्थ रचना की है ।
भास्कर
कला - गंगवाडि में स्थापत्य और शिल्पकला की विशेष उन्नति हुई थी । उस समय समस्त दक्षिण भारत में दर्शनीय भव्य मन्दिर, दिव्य मूर्तियाँ, सुन्दर स्तम्भ प्रभृति मूल्यवान् विशाल कृतियाँ स्थापित हुई। गंगवाडि की जैन कला बिल्कुल भिन्न रही। गंगवंश के समस्त राजाओं ने जिनालयों का निर्माण कराया था। मन्दिरों की दीवाल और छतों पर कहीं-कहीं नकासी और पच्चीकारी का काम भी किया गया था। कोई-कोई मन्दिर दो मंजिल के भी थे और चारो ओर दरवाजे रहते थे । पाषाण के सिवा लकड़ी के जिना - लय भी बनवाये गये थे । इस युग में मूर्ति निर्माण कला में भी जैन लोग बहुत आगे बढ़ेचढ़े थे; प्रसिद्ध बाहुबली स्वामी की मूर्ति इसका ज्वलन्त निदर्शन है । यह मूर्ति आज भी दुनिया की आश्चर्यजनक वस्तुओं में से एक है ।
मन्दिरों के अतिरिक्त गंगराजाओं ने मण्डप और स्तम्भों का भी निर्माण कराया था । जैन मगर पाँच स्तम्भ के होते थे, चारो कोनों पर स्तम्भ लगाने के अतिरिक्त बीच में भी स्तम्भ लगाया जाता था और इस बीच वाले स्तम्भ की विशेषता यह थी कि वह ऊपर छन रों इस प्रकार फिट किया जाता था जिससे तत्नी में से रूमाल आर-पार हो सकता था । ये स्तम्भ मानस्तम्भ और ब्रह्मदेवस्तम्भ, इन दो भेदों में विभक्त थे ।
ई० स० १००४ में जब गंगनरेशों की राजधानी तलकाद को चोल राजाओं ने जीत लिया तो फिर इस वंश का प्रताप क्षीण हो गया। इसके पश्चात् दक्षिण भारत में होय्सल वंश का राज्य प्रतिष्ठित हुआ। इस वंश की उन्नति भी जैन गुरुओं की कृपा से हुई थी । इस वंशका पूर्वज राजा सल था। कहा जाता है कि एक समय यह राजा अपनी कुलदेवी के मन्दिर में सुदत्त नामके जैन साधु से विद्या ग्रहण कर रहा था, इतने में वन से निकलकर एक बाघ सल को मारने के लिये झपटा। साधु ने एक डण्डा सल को देकर कहा'पोप सल' - मारसल । सल ने उस डगडे से बाघ को मार डाला और इस घटना को स्मरण रखने के लिये उसने अपना नाम पोपसल रखा, आगे जाकर यही होय्सल हो गया ।