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[भाग 1५
पुढ़कता किनारे लग ही जाता है। धार्मिक साहित्य जो कि आज की दुनिया के पाठकों के लिये उपेक्षा की चीज है, इस पुस्तक के अध्ययन से यह बात भ्रान्त सिद्ध हुए बिना नहीं रहेगी। ग्रन्थ की शैली रोचक और आशु बोधगम्य है, व्यवस्थित विषय का अंकन हृदय पटल पर पढ़ते ही होता चला जाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि इस सुन्दर और उपयोगी पुस्तक को शीघ हाथों हाथ खरीद कर अन्य दूसरी इस विषय की अनुपम रचना लिखने के लिये शास्त्रीजी बाध्य करें; जिससे जैन साहित्य आजके राष्ट्रीय और नैतिक साहित्य में अपना उचित स्थान पा सके। छपाई. सफाई, गेटप आदि सुन्दर हैं।
अ० चन्दाबाई जैन
राजुल काव्य-रचयिताः कवि बालचन्द्र जैनः प्रकाशकः माहिन्यसाधनासमिति, जैन विद्यालय काशी। पृष्ठ १३२. छपाई-सफाई और कागज उत्तम, मृल्य ११॥)
पुस्तक के प्रारम्भ में श्री० वपं० चन्दाबाई जी की आलोचनात्मक विद्वनापूर्ण सुन्दर भूमिका है। आरने इसमें राजुल काय की विशेषताओं पर पृग प्रकाश डाला है। इम ग्रन्थ का कथानक-"द्वारकाधीश समुद्र विजय के सुपुत्र-भगवान नेमि का विवाह, गिरि-नगर की राजकुमार गजुल के साथ हो रहा था, बागत अभी पहंच रही थी, भगवान नेमि ने देखा और सुना कि-य बहुत से पशु वागती मांसाहारी राजाओं की तृप्ति के लिए लाये गये हैं। कारणा-समुद्र उमड़ा, पशुओं को प्राणदान दिया और आप साधु होने के लिए गिरिनार पर्वत चल दिये। राजुल समझाने गई
और स्वयं माध्वी होगई। ___ भाषा सरल, भाव कोमल, गुण प्रसाद, कल्पना मधुर और इतिवृत्त संक्षिप्त है पौराणिक कथानक परिवर्तन से निम्बर उठा है; गजुन की विरह. वेदना और टीस को कवि ने बड़े सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है।
सुकुमार काव्याङ्गों के उपयुक्त अलंकार भी है। कहीं • "विचर रहे" "विसार रहे" "अवरोध हुआ" आदि में अनुप्रास या तुकबन्दी का पालन नहीं हुआ। "डास औ प्रति (!) हास" (७७ पद्य) "किन्तु स्मरण (1) भी" "मैं न () मान (हY पद्य) आदि में मात्राओं की कमी, "तुम्हारं (.) को क्यों प्रेमी मान" "पद्य की-अनुगामी (1) व्याकरण-विरुद्ध, “परिणीत कियातूने (!) मुझको, “अधिकार कहां तुझको ()" भादि में एक वचन-प्रयोग सौन्दर्य-विरूपक हैं; तथापि प्रथम प्रयास में ही कवि बहुत कुछ