________________
[भाग १५
प्रान्तों और देशों का वर्गीकरण किया था, उस समय जैन चैत्यालयों का निर्माण भी हुआ था, अतः उत्तर के समान दक्षिण में भी भरत चक्रवर्ती ने जैन चैत्यालयों की बन्दना करते हुए विजय प्राप्त की थी।
पोदनापुर में दक्षिण भारत के प्रथम जैन सम्राट् बाहुबली स्वामी की राजधानी बतायी गयी है, यह स्थान आज भी दक्षिण भारत में स्थित है। इसी प्रकार जैन साहित्य में पोलासपुर, मदुरा, भद्दिल आदि नगरों के नाम मिलते हैं। इन नगरों में भगवान् ऋषभदेव के समय में ही जन धर्मका प्रचार बताया गया है। दाक्षिणात्य मथुरा-मदुरा नगर, को पाण्डवों ने बसाया था । कहा गया है
सुतास्तु पाए डोहरिचन्द्रशासनादकाएड एवाशनिपातनिष्ठुरात् ।
प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठां मथुरां न्यवेशयन्' । जब द्वारिका नगरी नष्ट हो गयी और कृष्णा अपने भाई बन देन के साथ दक्षिण मथुग को चले रास्ते में कौशाम्बी के जंगल में जरतकुमार ने बागा चलाया, जो कि श्रीकृपया के पाँव में लगा; जिससे उनका आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़कर चला गया । जब पागडयों को यह दुःखद समाचार मिला तो वे बलदेव से मिलने के लिये कौशाम्बी के जंगल में आये और उन्हें समझा बुझाकर यह तय किया कि नारायण के शव का संस्कार शृंगी गिरि पर कर दिया जाय।
पाण्डव दक्षिणा के पल्लव देशमें भगवान नेमिनाथ का विहार अवगत कर मदुरा को लौट आये और भगवान् नेमिनाथ के पास जाकर जैन-दीक्षा ग्रहण कर ली । पाण्डवों के साथ और भी कई दक्षिणी गजाओं ने जैन-दीक्षा ग्रहगा की, अतएव यह मष्ट है कि भगवान नेमिनाथ ने दक्षिगा के देशों में विहार कर जैनधर्म का प्रचार किया था।
अथ ते पाण्डवाञ्चंडसंसारभयभीरवः ।
प्राप्य पल्लवदेशेषु विहरंतं जिनेश्वरम् ।। हरिवंश पुराण के एक अन्य कथानक से ज्ञात होता है कि महाराज श्रीकृष्ण का युद्ध जब जरासिन्धु के साथ हो रहा था तो दक्षिण भारत के कई राजा भी उनके पक्ष में थे। इसका कारगा यह है कि मदरा में पाराडवों का राज्य स्थापित हो जाने पर द्राविड़ राजाओं का सम्पर्क उत्तर के राजाओं के साथ घनिष्ठ होता जा रहा था। चेर, चोल, पाण्डय
आदि वंश के राजाओं का इनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। इसलिये पाण्डवों के साथ . इन्होंने जिन-दीक्षा ग्रहणा की थी।
गायकुमार चरिउ में कहा गया है कि भगवान् नेमिनाथ के तीर्थकाल में कामदेव नागकुमार हुए थे। नागकुमार का मित्र मथुरा का राजकुमार महाव्याल था। यह महा
१ हरिवंश पुराण सर्ग ५४ श्लो० ७३ २ संक्षिस जैन इतिहास भाग ३ खं० १ पृ० ११४