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भास्कर
[भाग १५
किष्किन्धापुर में आया। इस भ्रमण वृत्तान्त से स्पष्ट है कि भद्रबाहु स्वामी के जाने के पहले दक्षिण प्रान्त में जैनधर्म फल-फूल रहा था। यदि वहाँ जैनधर्म उन्नत अवस्था में नहीं होता तो यह विशाल मुनिसंघ, जिसकी कि आजीविका जैन धर्मानुयायी श्रावकों पर ही प्राश्रित थी, विपत्ति के समय कभी भी दक्षिण को नहीं जाता। बुद्धि इस बात को कभी स्वीकार नहीं करती है कि भद्रबाहु स्वामी इतनी अधिक मुनियों की संख्या को बिना श्रावकों के कैसे ले जाने का साहस कर सकते थे अतः श्रावक वहाँ विपुल परिमाण में अवश्य पहले से वर्तमान थे। इसीलिये भद्रबाहु स्वामी ने अपने विशाल संघ को दक्षिण भारत की ओर ले जाने का साहस किया।
भद्रबाहु स्वामी की इस यात्रा ने दक्षिणभारत में जैनधर्म के फलने और फूलने का सुअवसर प्रदान किया। बौद्धों की जातक कथाओं और मेगास्थनीज के भ्रमणवृत्तान्तों से अवगत होता है कि उत्तर में १२ वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था और चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने पुत्र सिंह सेन को राजगद्दी देकर भद्रबाहु के साथ दक्षिणा में आत्मशोधन के लिये चला गया था । चन्द्रगिरि पर्वत पर चन्द्रगुप्त की द्वादश वर्षीय तम्या का वर्णन मिलता है। भद्रबाहु स्वामीने अपनी आसन्न मृत्यु ज्ञातकर मार्ग में ही कहीं समाधिमरण धारण किया था। इनका मृत्युकाल दिगम्बर परम्परानुसार वीर नि० सं० १६२ और श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा वी० नि० सं० १७० माना जाता है।
दक्षिणा में पहुँचकर इस संघ ने वहाँ जैनधर्म का खूब प्रसार किया तथा जैन साहित्य का निर्माण भी विपुल परिमाणा में हुआ। इस धर्म के प्रचार और प्रसार की दृष्टि से दक्षिण भारत को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-तामिल प्रान्त और कर्णाटक । तामिल प्रदेश में चोल और पागड्य नरेशों में जैनधर्म पहले से ही वर्तमान था, पर अब उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ हो गयी तथा इन राजाओं ने इस धर्म के प्रसार में बड़ा सहयोग प्रदान किया। सम्राट एल खारवेल के एक शिलालेख से पता चलता है कि उसके राज्याभिषेक के अवसर पर पाण्ड्य राजाओं ने कई जहाज उपहार भेजे थे। ये सभी राजा जैन थे इसीलिये जैन सम्राट के अभिषेक के अवसर पर उन्होंने उपहार भेजे थे। इनकी राजधानी मदरा जैनों का प्रमुख प्रचार केन्द्र बन गयी थी। तामिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि भद्रबाहु स्वामी के विशाल संघ के आठ सहस्र जैन साधु पाण्ड्य देश गये थे, जब वे वहाँ से वापस आने लगे तो पाण्ड्य नरेशों ने उन्हें आने से रोका। एक दिन रात को चप-चाप इन साधुओं ने राजधानी छोड़ दी; पर चलते समय प्रत्येक साधु ने एक-एक साइपत्र पर एक-एक पद्य लिखकर रख दिया; इन्हीं पद्यों का संग्रह 'नालिदियर' कहलाता है।
तामिल साहित्य का वेद कुरलकाव्य माना जाता है, इसके रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इन्होंने असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण से इसे लिखा है, जिससे यह काव्य मानवमात्र के लिये अपने विकास में सहायक है। जैनों के तिरुक्कुरल, नालदियर, पछिमोली, नानुली. चिन्ता