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[भाग ५५
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अध्ययन करने की चाह से यातायात के साधनों के अभाव के होते हुए तथा कठिनाइयों का सामना करके मातृभूमि को छोड़ धर्म भूमि देखने को चलनेवाले दुनिया के इतिहास में शायद ही मिलेंगे। पहले वह तक्षशिला गया, बादमें उसने गणधर को देखा। अफधान देखकर फिर बभू शहर को लौट पाया। मथुरा, कन्नोज, सरस्वती, कपिलवस्तु, पटना, गया, ताम्रपाली आदि धर्म स्थानों को देखा फिर जलमार्ग से जाकर उसने सिलोन देखा और गया होकर चीनको प्रस्थान किया। पटना में तीन वर्ष रहकर संस्कृत सीखी और ताम्रपाली में दो वर्ष धर्मग्रंथों की नकलें उतारने में बिताये ।
उसके यात्रा वर्णन में ऐतिहासिक दृष्टि की अपेक्षा धार्मिक दृष्टि ही नज़र आती है। जैसे किः-प्राँधी के समय बुद्ध की प्रार्थना करने से संकट दूर हुमा । फाहियान ने उत्तर भारत के क्षेत्र देखें, समाज देखा और उक्त कालके कुछ अधूरे वर्णन लिम्ब रखे हैं। इसमें जरा भी शक नहीं है कि उसकी लिखी सामाजिक स्थिति तीनों धर्मों पर घटित होती है। उसने लिखा है:-"लोग जीव हिंसा के विरोधी ये, सभी सुखी थे। सजाएँ बहुत ही अल्प प्रमाण में दी जाती थीं। राजपुरुष न्यायी एवं ईमानदार थे। शराब का नाम तक नहीं था और तो और कंदमूल तक खाने के काम में नहीं लाये जाते थे। कई राजाओं ने विहार, मठ, बनवाये थे जहाँ श्रमणों-भिक्षुओं के टिकने की बड़ी सुविधः थी। मध्य भारत के शहर विशाल एवं वैभव संपन्न थे। स्थान-स्थान पर दातव्य औषधालय और धर्मशालाएँ बनी थीं। जनता इन संस्थाओं को धड़ी उदारता से, दानों हायों उनच उलीच कर मदद देना थी। दूसरा चीनी यात्री युगान वांग नाम का था। इस हा जन्म होनान प्रांत में ६०३ ई० में हुआ था। ५३ वर्ष की उम्र में बौद्ध विहार में प्रवेश कर २८ वें वर्ष बुद्ध धर्म की दीक्षा ली। हरेक प्रांत में घूमा। फाहियान का अनुसरण करके धर्म-ग्रंथों की खोज करना, स्तूपों तथा देवस्थानों को देखना. मनको बेचैन करने वाली शानों को भारतीय पण्डितों से निरसन कराना इत्यादि इन उद्देश्यों को लेकर वह ६२९ में यात्रा के लिये हिन्दुस्तान की ओर चल पड़ा। शान्सी प्रान्त, गोवाका रेगिस्तान, कश्मीर के रास्ते से उसने भारत में प्रवेश किया। फिर प्रयाग, मथुरा बनारस जैसे तीर्थस्थानों में १५ महीने बिनाये। सारं भारत भरमें भ्रमण कर फिर एक बार हर्षवर्धन से भेंट की और सार्वधर्म परिपन के अध्यक्ष पद का विभूषित कर सरहदी प्रांत से होकर स्वदेश लौट गया। जाते समय ६५७ धर्मग्रंथ, बुद्ध की रमणीय प्रतिमाएँ, अनेकों रत्न, तथा १५० बुद्ध के अवशेष अपने साथ ले गया।
(६) जैनों के उल्लेखों के प्रामास:
ये बौद्ध चीनी यात्री सिर्फ बौद्ध धर्म-ग्रंथों की खोज में आये थे और ज्यादा बौद्ध क्षेत्र ही देखे। उन्होंने सामाजिक, राजकीय तथा धार्मिक हालतों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। बनारस शहर के आसपास घूमकर जो भी कुछ देखा, तथा सुना वह लिपिबद्ध कर दिया है: