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[ भाग १५
साधन सामग्री में सिक्कों, शिलालेखों, स्तंभलेखों, चीनी यात्रियों के लिखे हुए चीनी भाषा के प्रवास afa बड़े लाभकारी सिद्ध हुए हैं । चीनी यात्रियों ने भारत भ्रमण करके सभी धर्मानुयायियों का जिक्र किया है। उनमें जैनधर्म विषयक बातें भरी पड़ी हैं। उनके आधार पर जैन धर्म के बारे मैं बहुत सी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अलावा जिसके चार शिलालेख अन्य अन्य स्थानों पर मिले हैं, जिनसे जैन धर्म तथा उसकी संस्कृति की क्या हालत थी, इसका अंदाज़ा किया जा सकता है
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(४) जैन शिलालेख: गुप्तकाल का सबसे पुराना शिलालेख उदयगिरि पहाड़ी के पास जो मध्य प्रांत के भेलसा जिले में है--मिला हैं यह प्रकृति में पाये गये टीलों पर अंकित किया है । तज्ज्ञों के मत में इसका समय ई० स० ४२४ माना जाता है। इस शिलालेख से अनुमान निकलता है, कि आचार्य भद्रबाहु के संप्रदाय के शांकर नामक शिष्य ने यह प्राचार्य
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भास्कर
शर्मा शिव भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की। वह इतना जमाना बीत जाने पर it of water में ज्यों की त्यों बनी है । यहाँ भगवान पार्श्वनाथ का सदा का लांछन चिन्ह तो है ही, साथ साथ पिछली बाजू में नागका बड़ा ही विशाल फन है, उसके पार्श्व में कोई एक सेविका है। शांकर मुनि के पिता का नाम सांधिला था, उन्हें अश्वपति की उपाधि थी; बड़े २ राजा महाराजाओं के ही लिये जो उपयुक्त होती थी। इससे यह बात सिद्ध हो सकती है, कि बड़े बड़े दरों, महाराजाओं पर जैन धर्म मे अपना काफी प्रभाव छोड़ा था। दूसरी महत्त्व की बात यह है कि उदयगिरि की उन पहाड़ियों पर हिन्दुओं के भी अन्य दो शिलालेख पाये गये हैं, वह यही प्रांत है जिसपर एक समय पूरी तौर गुप्तराजाओं का शासन था । विहार करते हुए शांकर मुनिने वहाँ पहुँचकर तथा वहाँ अपना डेरा डालकर फिर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की और इस प्रकार उसाँ स्थान को जैनों का पवित्र उपासना क्षेत्र बनाया, जिससे निश्चय यही प्रमाणित होता है कि उस ara में जैनधर्म तथा वैदिक धर्मका आपसी मेल जोल निकट का था । यद्यपि एक को राजाश्रय था, फिर भी दूसरे पर उससे कभी आघात नहीं पहुँचाया जाता था न किसीकी ऐसी सामर्थ्यं धी न किसी को ऐसा अधिकार था ।
ई०
दूसरा एक शिलालेख मथुरा के पास कंकालीतिला में मिला है । २०० वर्ष ईसा के पूर्व से लेकर ० स० १२०० तक मथुरा जैन शास्त्र तत्त्वज्ञान का केन्द्र था । वहाँ जैनों का बड़ा स्तूप एवं विहार है । इस स्थान में एक मंच पर तीर्थंकर की मूर्ति विराजमान है। इसका पता अब भी नहीं चलता कि यह कौन तीर्थंकर हैं क्योंकि वह मूर्ति भग्नावस्था में है। तज्ज्ञों की दृष्टि में यह लगभग ई० सं० ४३२ या गुप्तशक ११३ की होगी। इसके नीचे लिखा है "प्राचार्य धर्तिलाचार्य कोटिय्य a Ferfarar arrest की अनुज्ञा से गृहमित्र पालिता नामक शासक की पत्नी की ओर से समर्पित ।"