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दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रवेश
और विस्तार [लेo-श्रीयुत पं० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, साहित्यरत्न ]
दक्षिण भारत के इतिहास निर्माण में जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। इस संस्कृति का इस भूभाग के राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा है। यद्यपि जैनधर्म के सभी प्रवर्तक उत्तर भारत में उत्पन्न हुए हैं, पर दक्षिण में इस धर्म का प्रवेश प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के समय में ही हो गया था। ऐसे अनेक ऐतिहासिक सबल प्रमाग वर्तमान हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक काल में दक्षिणभारत में जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।
मदुरा और रामनद से खुदाई में ई० पू० ३०० के लगभग का प्राप्त शिलालेख इस बात को सिद्ध करता है कि जैनधर्म दक्षिगा भारत में ई० पू० ३०० से पहले उन्नत अवस्था में था। यह बाझी लेख अशोक लिपि में लिखा गया है, इसमें मधुराई, कुमत्तर आदि कई शब्द तामिल भाषा के भी मिलते हैं । यद्यपि अब तक इस लेख का स्पष्ट बाचन नहीं हो सका है, किन्तु इसी प्रकार के अन्य लेख भी माझ गलतलाई, अनमैलिया, तिरूपरन्नकुरम् आदि स्थानों में मिले हैं: जिनके आस-पास तीर्थङ्करों की भन्न मूर्तियाँ तथा जैन मन्दिरों के ध्वंसावशेष भी प्राप्त हुए हैं, जिससे पुरातत्त्वज्ञों का अनुमान है कि ये सभी लेख जैन हैं। अलगामले की खुदाई में प्राप्त जैन मूर्तियाँ भी इस बात की साक्षी हैं कि दक्षिण भारत में यह धर्म ई० पू० ३०० के पहले एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया था जिससे कि जैन स्थापत्य और मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी।
लंका के राजा धातुसेन (४६१-४७६ ई०) के समय में स्थविर महानाम द्वारा निर्मित महावंश नामक बौद्ध काव्य से पता चलता है कि ई० पू० ५०० के पहले दक्षिण भारत में जैनधर्म का पूर्ण प्रचार था। उस काव्य में बताया गया है कि राजा पागडगभ्य ने अनुराधपुर में अपनी राजधानी ई० पू० ४३७ में बसाई थी। इस नगर में विभिन्न प्रकार के सुन्दर भवनों का निर्माण कराया गया था। राजा ने एक 'निग्गन्थ' कुबन्ध' नामका सुन्दर जैन चैत्यालय बनवाया था तथा इस नगर में ५०० विभिन्न धर्मानुयायियों के बसने का भी प्रबन्ध किया था। इस कथन से स्पष्ट है कि जैनधर्म लंका में ई० पू० ५०० के पहले विद्यमान था।
1. See Madras Epigraphical Reports 1907, 1910. 2. See Studies in Sany Indian Jainikrm P 33.