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गुप्तकालीन जैनधर्म
[ ले० रमेशचंद्र चंद्रराव जैन बी० ए०, (आनर्स इन हिस्ट्री) भार० ए० ]
प्राचीन भारत का इतिहास पढ़ते या लिखते समय कुछ बातों का ख्याल अच्छी तरह से रखना पड़ता है। आज धर्म और जाति को लेकर खासी धाँधली मची है। उसीके कारण अन्यान्य धर्मों, जातियों एवं प्रान्तों में स्पष्ट रूपसे विभिन्नता का निर्माण हुआ है। लोगों में असूया, द्वेष जैसे दुर्गुण परले सिरे पर पहुँच कर जी अनबन पैदा हुई है, उसकी प्रतिध्वनि या असर मनुष्यों की विचार प्रणाली पर अवश्य हो जाती है। जिसके फलस्वरूप इतिहास को पड़ते समय उनकी दृष्टि पूर्व ही दूषित होजाती है। जिससे वे इतिहास का सच्चा स्वरूप नहीं जान पाते। प्राचीन भारत के इतिहास में परधर्म सहिष्णुता तथा परमत सहिरगुता सब कहीं बराबर दिखाई देती है। स्वधर्म, स्वमत तथा वैचारिक स्वाधीनता को सब अनुभव करते थे तथा उसके प्रचार के लिये उनको स्वतंत्रता थी और साबही साथ अन्य धर्मों के संबंध में वे समुचित आदर तथा म दिया सकते थे। "यथा राजा तथा प्रजा': यह उक्ति कई बार अपत्य सिद्ध होती थी। स्वयं राजपन्नी को भी अन्य धर्मियों के बारे में पहने सिर की सहानुभूति तथा प्रेम दिवाने में कोई रुकावट न थी। तो फिर प्रजा का तो कहना ही क्या ? और तो और प्रजा की भलमनसी के दबाव के कारण अन्य धर्मियों, मंदिरों नथा संस्थाओं को राजा की ओर से पुरस्कार तथा दान देने पड़ते । यही कारण है कि विभिन्न धर्मों में कोई भेद भाव नहीं रहता था। नागरिकों के अधिकार. ऊँच-नोहदे तथा सदगुणों के अंत्र में आगे बढ़ने के लिये धर्म किनारं ही रहता था। गुप्तकाल का अध्ययन करने हुये इस बात की और विशेष-तौर के ध्यान देना परम आवश्यक है। यापि गुप्तराजा स्वयं कहर वैष्णव थे फिर भी अन्य धर्मियों के साथ उदारता से तथा सहानुकंपा से पेश श्रात थे। ३ री, ४ थी, ५ वीं तथा ६ टी शताब्दि में वैदिक, जैन तथा बौद्ध धर्म का आपस में खूब मलजोल या घनिष्ठता थी। (२) हिन्दुस्तान के इतिहास में गुप्तकाल का महत्त्वः ......
इस काल में शास्त्र, कला, शिल्प तथा साहित्य की दृष्टि से हिन्दुस्तान बहुन प्रगति कर चुका था, साहित्य की सभी शाखाओं, उप-शाखाओं को कवियों ने अपनी कलम का विषय बनाया था, सभी प्रकार के ग्रंथों में राष्ट्र गाथाओं, वीरगाथाओं, प्रेमगाथाओं, पुराणों, महाकाव्यों, श्राख्यादिकाओं नाटकों आदि की निर्मिति से साहित्य अपनी चरम सीमा को पहुँच गया था। इसी काल में महाकवि कालिदास का प्रादुर्भाव हुआ । जिसने अपनी प्रखर प्रतिभा के बलसे भारतीय साहित्य का नाम विश्वभर में उज्वल किया था। गणित तथा ज्योतिष शास्त्र की प्रगति प्राचार्य भट्ट वराहमिहरने बहुत अच्छे ढंग पर की थी। [ई० स० ४७६ ] चित्रकला, शिल्प, स्थापत्य ये कलाएँ उन्नति के