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सम्पादकीय
आगामी अंक--श्रीदेवकुमाराक हम अपने अतीत का इतिहास जानने के लिये अधिक उत्सुक रहते हैं। क्योंकि वर्तमान की अपेक्षा अतीन हमें अधिक प्रिय होता है। हम अतीत के गौरव द्वारा अपने यनमान को गौरवमय बनाना चाहते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक देश, समाज और राष्ट्र अग्ने उज्वल अनीत के कणों को एकत्रित कर वनमान का निर्माण करता है। जिस जाति का अतीत जितना प्रकाशमान होता है, उसका वनमान और भविष्य भी उतना ही समुज्वल ।
जैन समाज का भी अतीत अत्यन्त प्रकाशमान और गौरवशाली है; परन्तु इस के क्रमबद्ध इतिहास का निमारण अभी होना शेष है। यापि सदर अतीत के इतिहास मजन की ओर अनेक जैन विद्वान और जेन नम्थाट प्रयत्नशील हैं: परन्त बद के साथ लिखना पड़ता है कि निकट प्रनीत के इतिवृनों के संकलन को और जैन समाज का ध्यान अभी नहीं गया है। इस बीसवीं शताब्दी में जैनधर्म और उसके अनुयायियों की गतिविधि क्या रही है ? समाज के कर्णधार कौन कौन व्यक्ति हर और उन्होंने समाज का संचालन का किया ? किम दिशा में किस प्रकार प्रगति की है ? उन्नति के लिये कौन-कौन आन्दोलन किये गये हैं तथा उनमें कहाँतक सफलता
और असफलता मिली है ? आदि इतिवृत्तों के मंचय की ओर हमाग बिल्कुल ध्यान नहीं गया है। इस बीसवीं शती के अर्धशतक की और हमने कभी देखने का प्रयत्न नहीं किया है। यद्यपि विगत पचास वर्ण के इनिहास निर्माण के लिये हमारे पास प्रामाणिक सामग्री मौजूद है नथा जीविन वृद्ध व्यक्तियों की जुबानी भी इतिहास निर्माण के बहुत से उपकरण प्राप्त हो सकते हैं। श्राज यह सामग्री सुलभ है. पर कुछ ही दिनों के बाद यही ऐतिहासिक मामग्री अन्धकाराच्छन्न हो जायगी। जैसे आज सुदूर अतीत के इतिहास निर्माण के लिये पुरातन वण्डहरों को झाँकना पड़ रहा है, तथा जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थों के पन्नों को टटोलना पड़ रहा है। उसी प्रकार सौ दो सौ वर्ष के बाद ही इस शतक के इतिहास के निर्माण के लिये भी हमें जी-तोड़ श्रम करना पड़ेगा। आज इस कार्य को हम अल्पशक्ति और अल्प श्रम से कर सकते हैं, भविष्य में हमें इसके लिये अपनी अधिक शक्ति और श्रम लगाना पड़ेगा।
लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान् श्रीमान पं० कैलाशचन्द्र जी बनारस का ध्यान इस ओर गया था। उन्होंने जैन समाज के इस अर्धशतक के इतिहास को लिम्बने के लिये