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भास्कर
[भाग १७
श्वीनटर ने सन १५८५-१६३६ ई० में Geometrica Practica में वितत भिन्न का उपयोग किया है। पर सिद्धान्त की चर्चा का श्रीगणेश सन १६५५ में प्रकाशित लार्डब्रानकर का समोकरण- १. १२.३२, ५ .......... ; एसा
१+:+३२+...... ; ऐसा समझा
जाता है कि इनकी कल्पना का आधार वालिस (Wallis) का समीकरण है।
___A= ३.३.५.५७.७.........
- २४४.६.६८८...... जान वालिस ने अपने पाटी गणित में (१६५६ ई.) साधारण वितत गणित की संमृतियाँ और प्रारम्भिक सिद्धान्तों की चर्चा की है। राजेन ने सन् १७०३ में सरल वितत भिन्नों का प्रयोग किया है। निकोल सॉन्डरसन (१६:८-१०३). आयलर
और लैम्बई ने वितत भिन्न के सिद्धान्तों का निरूपण किया है लैंगरेजेज ने श्रायलर के बीजगणित का सम्पादन कर नये नये सिद्धान्तों की चर्चा की है। एक स्टन नामक गणितज्ञ ने १६ वीं शती के पूर्वार्द्ध में इस विषय पर काफी लिया है। पाश्चात्य गणितज्ञों में वितन भिन्न को संमृत के सिद्धान्त का श्रेय बहुत से गणितज्ञों की है। जनमें एक स्टनं साहब भी हैं। इ० बी० वान, ब्लाक आदि गणितज्ञों ने निम्माम वितत भिन्न, जिसकी राशियाँ Complex हैं, की मंमृति का सिद्धान्त निकाला। ___ उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पाश्चात्य गणित जगन में १६ वा शनी के पहले वितत भिन्न का प्रयोग नहीं किया गया था। जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों में ममम्त जीवराशि, गुणस्थानों को जीवराशि. मार्गणाओं की जीवशि का प्रमाण निकालने के लिये वितत भिन्न का प्रयोग धवलाकार ने नवीं शनी में सिद्धान्त निरूपण पूर्वक किया है। धवलाटीका के रचयिता श्री वीरसेनाचार्य ने उपयुक्त जीवाशियों का प्रमागा निकालने के लिये अपने पूर्ववर्ती जैनाचार्यो के गणित सूत्रों को उद्धन किया है। निश्रय ही ये गणित सूत्र पांचवीं शनी से लेकर आठवीं शती के मध्यवर्ती काल के हैं। अंख्यात, असंख्यातामख्यात, अनन्न और अनन्तानन्त के प्रान्तरिक प्रभेदों और तार. तम्यों का सूक्ष्म विवेचन विनत भिन्न के सिद्धान्तों के पालम्पन बिना संभव नहीं था। द्विरूपवर्गधारा, घनायनवगंधाग तथा करणीगत बगित गशियों के वर्गमूल के प्रानयन में भी वितन भिन्न का प्रयोग जैनाचार्यों ने किया है।
"असंखेजमागकहियसम्बजवरासिया तदुवरिमवम् मागे हि किमागच्छदि ? असंखजभागहोय सम्बजीवरासी भागरदि। उसम-प्रसंबंजामखेजमागम्भदियसम्राजीवरासिया तदुरिमनग्गे मागे दिकिमागमछदि ? जायणपरिसासमागहीबसम्पजीवरासी भागवति । भसमागमहिय