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[ भाग १५
अपने अपने परिवार के साथ आशापली स्थान से पाटन जाने के लिये प्रस्थान करते हैं, उस समय का दृश्य इस चित्र में अंकित किया गया है। इसमें ऊपर के चित्र में देवसूरि के प्रस्थान का दृश्य बतलाया है। पाटन में सिद्धराज की सभा में, कुमुदचन्द्र के साथ जो वाद-विवाद होगा उसमें उनकी विजय हो, इस लिये श्राशापल्ली के जैन संघ ने शुभ शकुनों का प्रबन्ध कर रखा था। देवसूरि जब मकान से बाहर निकले तब उनके सामने भय जैन रथयात्रा निकल रही है, जिसमें एक सुन्दर रथ जिनमूर्ति को बैठाकर उसके
में
आगे नृत्य गीत शादि का सुन्दर प्रबन्ध किया गया है। देवसूरि उत्साह पूर्वक आगे पैर रख रहे हैं। उनका शरीर खूब कहावर और हृष्टपुष्ट है। आँखों गाम्भीर्य और मुख पर प्रसन्नता बाई हुई है। दो भक्त विकसित मुख और आदर सूचक मुम्बमुद्रा मे नन्द कर रहे हैं | आचार्य और श्रावकों के आगे एक नर्तकी चल रही है। जिसमें एक नर्तकी भावसंगी पूर्ण नृत्य कर रही है । के पीछे जिनमूर्तिवाला सुन्दर काष्ठ रथ है। जिसे पुरुष और युवक खूब उत्साह से खेच रहे हैं 1 इन शुभ शकुनों के साथ होने वाले प्रस्थान से देवसूरि का संघ अपने पक्ष की गावी विजय के विश्वास के साथ उत्पाद पूर्वपाट की तरफ जा रहा है ।"
ॐ
भास्कर
'इसके नीचे के दूसरे चित्र में आचार्य कुमुदचन्द्र के प्रयाशा का दृश्य बतलाया है । दिगम्बरानार्थ पानी में जाने के लिये निकले हैं। इनके अनुव में ३-४ बने पलकी उगने वाले हैं। ३-४ जने छन लिये हुए हैं। आगे दो सुग चल रहे हैं जिनके हाथ में औरवार है। सबसे आगे एक अनुतर विकुल देता हुआ चल रहा है, जिसके सुनने में लोग यह समझ सके कि किसी बड़े को सवारी या रही है। दिगम्बराचार्य की सवारी गाँव द्वार से बाहर निकल कर जैसे ही एक स्थान पर पहुंचती है उसके आगे ऊँचा फासा किये बैठा एक बड़ा काला सर्प दिखाई देना है। आचार्य के अनुचर इस अपशकुन को देख कर मन में खिन्न होते हैं और एक दूसरे का मुख्य देखने लगते हैं । आचार्य भी इस अपशकुन को देख कर मन में जरा उनि हो जाते हैं। चित्रकार ने उनके मुख के ऊपर इस उद्वेग का अच्छा भाव मार्मिकता के साथ दिखाया है ।"
'इसके बाद के चित्र में, दिगम्बराचार्य पाटन के राजा के अन्तःपुर में, बहुत करके राजमाता से मिलने जाना चाहते हैं, किन्तु द्वारपाल उन्हें रोक देता है । इस चित्र का भाव यह है कि सिद्धराज की माता भयगुल्ला देवी दक्षिण की राजकुमारी श्री और उनका पितृपक्ष दिगम्बर सम्प्रदाय की तरफ पक्षपात रखता था । कुमुदचन्द्राचार्य भी दक्षिण देश के वासी थे । इससे उनकी ओर राजमाता का भक्तिभाव था । इससे दिगम्बराचार्य राजमाता से व्यक्तिगत रूप से मिलने के लिये और उनके पक्ष की जिससे विजय हो ऐसा