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भास्कर
[भाग १५
भी बाचक गुरुओं को परम्परा द्वारा सुरक्षित रहती चली गयी। अवश्य ही कालदोष तथा नित्यप्रति वृद्धिगत एवं विस्तार को प्राप्त होते हुए सम्प्रदायों, संघों, गणों, गच्छों आदि के कारण वास्तविक घटनाओं की एक मूल अनुश्रुति भी कई विभिन्न धाराओं में बँटकर कुछ सामान्य अन्तरों को लिये हुए कुछ विविध, विकसित एवं सदोष भी होती चली गयी । तथापि विवन्तित घटनाओं के सम्बन्ध में अन्य सर्व अनुश्रुतियों और आधारों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।
उपर्युक्त जैन आधारों का ---आधार (य) को छोड़कर और विशेषरूप से (ब) अर्थात् श्वेताम्बर साहित्य का मुनि श्री न्याग विजय जीने अपने लेख 'चाणक्य और उसका धर्म'' में आर्य चाणक्य को जैन धर्मानुयायी सिद्ध करने में सफलतापूर्वक उपयोग किया था। आधार स य, का और कुछ अंश में अ, का उपयोग भी अनेक पाश्चात्य, पौर्वात्य विद्वान् सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य और अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु का गुरु-शिष्य सम्बन्ध, चन्द्रगुप्त का जैनत्व तया जैन-मुनि के रूप में संघ सहित दक्षिण को विहार करना, घहां श्रवणबेलगोल के निकट चन्द्रागिरि पर्वन पर निवास करना और समाधिमरण को प्राप्त होना आदि के सिद्ध करने में सफलता के साथ कर चुके हैं। फलस्वरूप सम्राट चन्द्रगन के जैनधर्मानुयायी होने में अग पार: किपीनियन विज्ञान को सन्देह नहीं है। श्रा भी कुछ दिन हुए, लवनक विश्वविद्यालय के प्राचीन मनिहाम विभागा यक्ष प्रो० सी० डी० चटनी महोदय ने डा० विगल चरणा लो अभिनन्दन गन में प्रकाशित अपने एक विनापणा निम्नु र लेद में अनाचार या. मकरकणात उपयोग करने हा चन्द्रगत मौर्य के प्रारंभिक जीवन और प्ररंगतः गन्त्रीराज चापाक्य के भी प्राणिक जीवन सम्बनी घटनाओं पर आभूतपूर्व प्रकाश डाला है ।
किन्तु अापके लेख का जो सर्वाधिक मत्वा अंश है वह उक्त जैनाधारों का विद्वत्ता पूर्ण विवेचन है, यद्यपि उसों कई स्थानों पर पर्याप्त मतभेद की गाया है और कोई कोई विचार भ्रमपूर्ण भी पतीन होना, कि मी उक्त विमा यनीय उायोगो एवं उद्धत करने योग्य है। अतः आप के शब्दों में "जैनियों का पान एवं संस्कृत लौकिक साहित्य चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य सम्बंधी अनुश्रुति की कम से कम दो धाराएँ प्रस्तुत करता है, जिनमें से एक (श्वे०) आवश्यक एवं उत्तराध्ययन (आगम सूत्रों) की व्याख्याओं में उपलब्ध होती है और दूसरी विशेषरूप से (दिग०) जैन कथासाहित्य में। 'आवश्यक' की परम्पग मूलतः वही है जो 'उत्तराध्ययन' की, यद्यपि इन दोनों के बीच कतिपय तत्सम्बंधी गोगा बातों में कुछ अन्तर है। इन दोनों ही (श्वे०) अनुश्रत धारागों के बीज उक्त दोनों पागम सूत्रों पर नियुक्तियों अर्थात् संक्षिप्त पद्य व्याख्याओं में उपलब्ध होते हैं।
काना - किरण । ४. ११५