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भास्कर
[भाग १७
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इस प्रकार जैनाचार्यों ने आत्मिक विकास के लिये वितत भिन्न का प्रयोग सिद्धान्त निरूपण के साथ ई० सन् की पाँचवीं या छठवीं शती में किया है।
भारतीय अन्य गणित शास्त्र में वितत भिन्न का प्रयोग सिद्धान्त प्रतिपादन के रूप में भास्कराचार्य के समय से मिलता है। यों तो आर्यभट और ब्रह्मगुप्त के गणित प्रन्थों में भी इस भिन्न के बीजमूत्र वर्तमान हैं, परन्तु सिद्धान्त स्थिर कर विषय को व्यवस्थित ढंग से उपस्थित करने तथा उससे परिणाम निकालने की प्रक्रिया उन ग्रन्थों में नहीं है। धवला टीका में उद्धृत गाथाओं में वितत भिन्न के सिद्धान्त इतने सुव्यवस्थित हैं, जितने आज पाश्चात्य गणित का सम्पर्क या वितस भिन्न के सिद्धान्त स्थिर हुए हैं।