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भास्कर
भाग १५
१८ पापन्दो दक्षिणस्याथ सेतोः केदारमाश्रितस्
राजमानेन मानेन क्षेत्रमेक निवर्त्तनम् ।। १६ समणे सेतुबंधस्य क्षेत्रमेक निवर्तनम् ।
तच्चापि राजमानेन वेटिकोटे त्रिनिवर्त्तनम् ।। २० उञ्छादिपरिहर्त्तव्ये समाधिसहितं हितम् ।
दत्तवां श्री महाराजस्सर्वसामंतसंनिधौ । २१ ज्ञात्वा च पुण्यमभिपालयितुविशालं
तद्भगकारणमितस्य च दोपवत्ताम् ।। २२ ....श्रमस्खलित संय्यमनैकचित्ताः ।
संरक्षणेस्यजगतो पतयः प्रमाणम् ।। २३ बहुभिर्वसुधामुक्ताराजभिस्सगरादिभिः
यस्ययस्य यदाभूमि स्तस्यतस्य तदाफलं ।। २२ अद्भिर्दत्तंत्रिमि भुक्तद्भिश्रपरिपालितम् ।
एतानि न निवर्त्तने पूर्वराजकृतानि च ।। २३ वाला पादनांवा यो हरेल सुगं।
पतियप हिनाशि नरके पच्यने नमः ।। नावा--- 1 महम् । भचला कनाथ पवन मावान् की जय की जिनके पाद पम देवों को मुकूट-भगिमा से गायक हुप से शामने हैं, जैसे पंकज मूर्य किरणों से श्राच्छादित शोभते हैं। रबराज की कोनि दिगन्नों में व्याप्त थी। उनका छोटा भाई काकुम्थ राम के तुल्य था। उन । पुत्र श्रीमान् शान्निवा नामक नरेश था। मृगेश उनका पुत्र मृगेश सदृश पराकमवाला था। अमल कदम्बा रूपी पर्वत की उच्चतम शिविरवत् रवि नरेश हए, जो मानो उदयाद्रि की शितिर पर मय ही चमक रहे हों। यह राजन् साक्षात् दैत्य विजयी चक्रविमा युत विष्णु ही थे। अपने साम्राउययोग में आनंद मानते हुए भी वह मानकषाय में नहीं वहे थे। उनका वैभव दूसरों को मदमत्त बनाता था ! पृथ्वी ने हर्षयुत हो इस चतुर नरेश का आश्रय लक्ष्मी-वत् प्रसन्नचित हो लिया था। रविनरेश की राजनगरी वैजयन्ती सुरेन्द्रनगरी-अमरावती को भी अपने सौन्दर्य से मात करती थी। विष्णु के वक्षस्थल पर विराजती हुई लक्ष्मी उतनी प्रसन्न नहीं हुई जितमी वह रवि नरेश के बाहपाश से बंदी रह कर हुई । लोक ने इस राजनीतिज्ञ राजा को वैसे ही अपना स्वामी