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[ भाग १७
इस परम पवित्र कार्य को करने का पुण्य प्राप्त नहीं हुआ; अब आप ही लोग इस पवित्र कार्य के स्वम्न स्वरूप हैं, इसलिये इस परमावश्यक कार्य का सम्पादन करना आप सबका परम कर्त्तव्य है" । "
अनेक समाजोत्थान के कार्यों के अतिरिक्त श्री जैन सिद्धान्त-भवन आरा की स्थापना श्री बा० देवकुमारजी ने ही की थी। आपकी मृत्यु ३१ वर्ष की अवस्था में श्रावण सुदीप सं० १९६४ में हो गयी ।
विद्वान लेखकों से सादर अनुरोध है कि इस अर्धशती के प्रकाशमान नक्षत्र श्री बा० देवकुमारजी के सम्बन्ध में संस्मरण, निबन्ध, कविता आदि अपनी रचनाएँ भेजने का कष्ट करें। जिन महानुभावों के पास उनके पत्र हों वे शीघ्र उन पत्रों को यहाँ भेजने की कृपा करें । रचनाएँ मार्च महीने के अन्ततक आ जानी चाहिये । सम्राट अकबर पर जैनधर्म का प्रभाव
प्रचार करना चाहा था ।
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सम्राट् अकबर अभ्यास प्रेमी था । आत्म-तत्व को अवगत करने की ओर उसकी विशेष रुचि थी; इसी कारण उसने 'दीन इलाही' नामक एक नये धर्म का इस नये धर्म की नींव अव्यात्मवाद पर आश्रित थी । अकबर के दरवार में जैनाचार्य श्री हरिविजय सूरि, विजयसेन जिनचन्द्र और भानु चन्द्र गुरु के पद पर आसीन थे। दिगम्बर जैन धर्मानुयायी भटानियाकोल (अलं 'गढ़) निवासी साहु टोडर अकबर की शाही टकसाल में अध्यक्ष के पद पर आसीन थे इनका प्रभाव भी अकबर पर पर्याप्त पड़ा था । सम्राट् की सहायता से इन्होंने मथुरा के क्षेत्रों की यात्रा के लिये एक विशाल संघ निकाला था और वहाँ पर जाकर जैन स्तूपों का जीर्णोद्वार कराया था। मेड़ता के नवा मन्दिरों के शिलालेखों से प्रतीत होता है कि अकबर पर अहिंसा धर्म का पूरा प्रभाव था । बताया गया है कि - श्री अकबर साहि प्रदत्त युगप्रधान पत्रप्रवरैः प्रतिवर्षापाठीयाप्याह्निकादिषायमासिकामारिप्रवर्तकः । श्रीपंत (स्तम्भ) तीर्थादधिमीनादिजीवरक्षकः । श्री शत्रु जयतीर्थंकरमोचकैः । सर्वत्र गोरक्षा
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कारकैः पंचनदीपीर माधकः । युगधान श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः । श्राचार्य श्री जिनसिंहमूरि श्री समयराजःपाध्याय वा हंसप्रमोद वा समयमुन्दर वा पुव्यप्रधानादिसाधुयुतैः । "
श्रीपाद
अर्थात- अकबर ने जैन मुनियों को युगप्रधान पद प्रदान किये। प्रति वर्ष पर्व जीवहिंसा निषेध (अमारि); प्रति वर्ष सब मिलाकर ह १- श्री बा० देवकुमारजी का यह उपदेश लिखितरूप में जैन सिद्धान्त भवन, धारा मे सुरक्षित है।
२- प्राचीन जैन लेख संग्रह 'लेखक' ४४३
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भास्कर