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किरण २ ]
जैन मूत्तियों की प्राचीनता - ऐतिहासिक विवेचन
मान है। स्तंभ के पीछे हाथ जोड़े हुए दो व्यक्ति हैं। एक जड़ाऊ वस्त्र सिंहासन से नीचे दोनों सिंहों के बीच लटक रहा है। उसके नीचे एक चक्र जान पड़ता है। आसन की सादी कोर पर नेमिनाथ का चिह्न शंस्त्र अंकित है ।
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जैन-कथाओं में कृष्ण वासुदेव और उनके परिवार का वर्णन बहुत मिलता है । अन्तकृत दशांग के एक प्रसंग के अनुसार अरिष्टनेमि ने कृष्ण-परिवार के कुछ व्यक्तियों को जैन-धर्म में दीक्षित किया था और स्वयं कृष्ण को दुखमा मुखमा काल में उत्पन्न होने वाला भावी बारहवां तीर्थंकर घोषित किया था। मथुरा के एक खुदे हुए शिलापट जो अपने लेख के अनुसार संभवतः कुपणराज वसुदेव के राज्यकाल में धनहस्तिन नामक किसी व्यक्ति की पत्नी के द्वारा भेंट किया गया था, एक मुनि को किसी महिला द्वारा भेंट ग्रहण करते हुए दिखलाया गया है। दोनों के बीच बड़े अक्षरों में 'कराह' श्रमण लिखा हुआ मिलता है जो संभवतः कृष्ण ही हो सकते हैं। कृष्ण संबन्धी जैन मान्यताओं को माना जाय या नहीं परन्तु इतना निश्चित है कि कृष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि के समय में जैन और वैष्णव धर्मों का घनिष्ट संपर्क हो गया था। इस पारिवारिक संबन्ध के कारण उस समय से यादवकुल के प्रभाव वाले द्वारिका, मध्यभारत यथा यमुना-धारा के प्रदेशों में जैन और वैष्णव धर्म समान रूप में वर्तमान रहे।
ऊपर वर्णित सर्वतोभद्रका प्रतिमा के अतिरिक्त मथुरा म्यूजियम के शिलापट्ट B70 और B71 में भी पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ अंकित मिलती हैं जो नागछत्र के द्वारा स्पष्ट पहचानी जा सकती हैं। ये मूर्तियाँ भी संभवतः हमारे निर्दिष्ट समय की ही जान पड़ती हैं।
तीर्थंकरों में सर्वप्रसिद्ध वर्द्धमान महावीर हैं। मथुरा या अन्य जैन-केन्द्रों में इनकी असंख्य मूर्तियाँ प्राप्त हैं। प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित कंकाली टीले से मिली दो ऐसी मूर्तियों का वर्णन आवश्यक है जो संभवतः सृष्टाब्दी की प्राथमिक सदियों की हैं। एक शिलापट पर वे कई सेवकों के साथ अपने पवित्र वृक्ष के नीचे आसीन हैं, जिनमें एक छत्रयुक्त नाग भी है। इसमूर्ति के आसन पर एक विकृत लेख है जिसका प्रारंभ 'नमो' से हुआ है। दूसरी मूर्ति एक मण्डप के नीचे अगल-बगल में दो सेवकों के साथ आसीन हैं। दोनों ही मूर्तियाँ ध्यानस्थ मुद्रा में हैं और सेवकों के अतिरिक्त उनके आसन पर दो सिंह तथा आकाश से फूल बरसाते हुए गंधर्वों और अप्सराओं के चित्र हैं।
जैन पहले प्रवर्तकों की ही मूर्ति स्थापित करते थे परन्तु उनकी धर्मकथाओं में चौबीस तीर्थकरों के अतिरिक्त अन्य देवताओं के उल्लेख भी मिलते हैं। नायगामेष इस