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भास्कर
( भाग १७
अडिल्ल छन्द एक हजार सात सै बानवै जानिये । चैत मुदी द्वितीया दिन नीका मानिये ॥ ___ता दिन पूरो ग्रन्थ कियो जियगज ने । मंगल करो सफल शैली समाज ने ॥ चौपई छन्द-- जैसो लिख्यो वचना लिख्थे । तैमा छन्द माहि मैं रग्यो ।
जो कटु यामें परे सन्देह । ती तामें देखो पर नेह ।। याके पढ मिथ्यात मिटाइ । काल लब्धि जो पहुँनै अाइ ।। याके पढ़ सुने बुधिमान | जिन्हैं जिनसानी मरधान ॥ जो जार धर्म ध्यान कति धरै । श्रागम पहन सुनन मन करै ।।
श्रागम से सम्यक गुण पाह। शिव मग पग धरे चिा लाइ । दोहा
कर्म न भेदा श्रारम, कम न भेदी जोइ । श्रातम पद परमात्मा, निह. धागे सोइ ।। जो वांछा शिव पद धरै, सग द्वपको गार || ममता ताज ममना न क म कोध को मार ।। प्रभु को नुमिरण शान कर, पूजा जाप विधान !
जिन प्रणीत मार्ग थिने, मगर महिमान । इति पुण्यात्रव कथा-कोप भाया चौथईद्ध भावसिंह जियाज कृत समाप्तं ।
प्रशस्ति के अन्त में इस प्रति के लिपिकार का नाम ऋषि हरि चन्द्र है। यह लिपि लाला ललितराम ने करायी। इस प्रति की लिपि पौष वदी ८ रविवार सम्बन् १८४८ में लक्ष्मण पुरी में की गयी है।
॥श्री।। त्रैलोक्य प्रदीप
जैनागम में तीनों लोकों का वर्णन करने वाले तिलोयपरणति, त्रिलोक सार, लोकतत्व विभाग आदि कई प्राचीन ग्रन्थ हैं। प्रस्तुत त्रैलोक्य प्रदीप में विस्तार पूर्वक तीनों लोकों का वर्णन किया गया है। यद्यपि इसका विषय त्रिलोकसार से बहुत कुछ मिलता-जुलता है किन्तु संस्कृत भाषा में गणित प्रदर्शन पूर्वक लोक के गणित का इतना सुन्दर और विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, जिससे इस विषय का पूर्ण परिज्ञान हो जाता है।
इस प्रन्थ के रचयिता इन्द्रवाम देव हैं। इन्होंने पुरवाडवंशी राजा जोमन के पुत्र नेमिदेव के अनुरोध से इस प्रन्थ की रचना की है। प्रन्थ रचयिता ने स्वयं ग्रंथ रचने का कारण असलाते हुए लिखा है कि--