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किरण २]
विविध विषय
है। आगे चलकर जम्बूद्वीप के षड्कुनाचल और सात क्षेत्रों का गणित बहुत विस्तार और स्पष्ट रूप से दिया गया है। श्री, ह्री, आदि देवियों के मन्दिरों के चित्र, उत्सेध, पायाम आदि का प्रमाण, परिधि का प्रमाण एवं अंगरक्षक अनीकादि देवों की संख्या बहुत विस्तार से बतायी गयी है। पन, महापद्म आदि छहों सगेवरों का सचित्र वर्णन तथा आयाम, गाम्भीर्य, व्यास, फल आदि का प्रमाण गणित दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । विजयार्द्ध के उत्तर, दक्षिण नगरों की नामावली तथा उनका आयाम, विस्तार
आदि बतलाया गया है। सुमेरुपर्वन तथा उसके अवयव भद्रशाल, नन्दन सौमनस, पाण्डुकवन आदि का गणित भी विस्तार पूर्वक सचित्र बतलाया गया है। गणितज्ञों के लिये यह प्रकरण मनोरंजक ही नहीं, बल्कि विशेष ज्ञानवर्द्धक है। पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह के देवारण्य और भूतारण्य के विस्तार आदि का निरूपण करने के अनन्तर बताया है।
यन्ति मेघवृन्दानि काले काले यथायथम् । दुर्भिक्षं दै यता नास्ति नास्ति चौरादिकं भयम् ।। कुदेवः कुत्सितो लिङ्गी कुशास्त्रं न च गर्विता ।
शलाकापुरुषाः सन्ति सन्ति केवलिनः सदा ॥ अर्धान्-इन दोनों वनों में सदा यथासमय वर्षा होती है। दुर्भिक्ष, देन्य, प्राधि, व्याधि, चौर आदि का अभाव है। कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र वहाँ पर नहीं हैं। सर्वदा वेसठ शलाका पुरुष और केवली विद्यमान रहते हैं।
अनन्तर भरतक्षेत्र के उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के षट्कालों का वर्णन करते हुए चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और चौवीस तीर्थंकरों की आयु, शरीरोन्नति, विभूति आदि का संदृष्टि प्रदर्शन पूर्वक सुन्दर वर्णन किया है। मध्यलोक व्यावर्णन में व्यास, परिधि, सूचीफल, क्षेत्रफल, घनफल आदि के प्रानयन के लिये कई करणसूत्र भी दिये हैं तथा इन करणसूत्रों का सोदाहरण गणित विस्तार भी बतलाया गया है। अन्त में एकेन्द्रिय, द्वान्द्रिय श्रादि संज्ञीपञ्चेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवों की आयु बतलायी गयी है। ___ ऊर्ध्व लोक व्यावर्णन नामक प्रकरण के प्रारम्भ में भवनवासी देवों के ग्रह, आवास, निलय श्रादि का वर्णन करने के पश्चात् इनकी ऋद्धि, इन्द्र तथा प्रादिपरिषद, मध्यपरिषद और बाह्यपरिषद की विभूति का विस्तार सहित वर्णन किया है। यों तो यह प्रकरण त्रिलोकसार से प्रायः मिलता जुलता है, किन्तु भेद-प्रभेद और कथनशैली में में थोड़ा अन्तर है । भवनवासियों की देवियों, उनकेनिवासस्थान भादि के सम्बन्ध का