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भास्कर
[भाग १७
दीख पड़ी । उक्त नगर की रक्षिका इष्ट देवियों के प्रसाद से वह नगर अजेय सिद्ध हुआ। बहुत दिन तक घेरा डाले पड़े रहने का भी उसपर कोई प्रभाव नहीं हुप्रा । अतः चाणक्य ने एक युक्ति सोची त्रिदण्डी साधु के छद्मवेष में उन्होंने उक्त नगर में प्रवेश किया और उन नगर देवियों - इन्द्रकुमारिकाओं के दर्शन किये जिनके कि कारण वह नगर अजेय बना हुआ था। उस नगर के निवासी भी इस दीर्घकालीन घेरे से त्रस्त हो उठे थे । अब और अधिक सहन किये जाना उनकी शक्ति से बाहर होता जा रहा था । के सैनिक सम्मिलित थे । युद्ध में नवों नन्द काम आये और पर्वतक ने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया । तदुपरान्त उसने सारे ही राज्य को अपने अधिकार में रखने के लोभ से नन्दों के भूतपूर्व मन्त्री राक्षस के साथ मिलकर चन्द्रगुन के विरुद्ध पड्यन्त्र किया किन्तु उसकी योजना सफल होने के पूर्व ही एक विष कन्या के संसर्ग द्वारा पर्वतक का प्राणनाश हो गया। इस विषकन्या को वास्तव में, राक्षस ने चन्द्रगुन की हत्या करने के उद्देश्य से भेजा था, किन्तु चतुर चाणक्य ने उसे बीच में से ही उस विश्वासघाती ग्लेन राजा के पास भेज दिया, और अपने कौशल से चन्द्रगुप्त के मार्ग का कंटक दूर कर दिया ।
डा० हर्मन जैकांची के मतानुसार यह पर्वत बौद्ध पार्वतीय वंशावली में उल्लिखित नेपाल के किरात वंश का ग्यारहवाँ राजा पर्व उपनाम पंचम था । इस वंश का सप्तम नरेश जितेदास्ती बुद्ध का समकालीन था और चौदहवाँ राजा स्पंक अशोक का । जैन परिशिष्ट पर्व में भी अशोक के नैपाल जाने का उल्लेख है ।
प्रो० चटर्जी का कहना है कि यद्यपि गोकर्ण (नैगल) के एकादशम किरात नरेश पर्व अथवा पंचम की ऐतिहासिकता में भले ही कोई सन्देह न किया जाय किन्तु यह बात समझ में नहीं श्राती कि चाणक्य जैसा राजनीति का महान पंडित और युद्ध नीति में विचक्षण व्यक्ति अन्तिम नन्दनरेश जैसे शक्तिशाली राजा का उन्मूलन करने के लिये कैसे एक असभ्य मंगोल जातीय पहाड़ी राजा की साधारण-सी सैनिक सहायता पर निर्भर हो सका ? नन्द की शक्ति कुछ मामूली नहीं थी । सिकन्दर महान के संसार विजेता महापराक्रमी योद्धाओं का साहस भी उसकी सीमा में प्रवेश करने का नहीं सका था । सिकन्दर की बलवती इच्छा रहते हुए भी वह अपने सैनिकों को वैसा करने के लिये राजी न कर सका और लाचार उसे मगध राज्य की सीमा पर से ही वापस लौट जाना पड़ा था। नहीं कहा जा सकता कि उत्तर कालीन जैन लेखकों (२०० - ११५० ई०) ने मौर्य सम्राटों की दरबारी अनुश्रुति का कहाँ तक अनुसरण किया है। वे भी उसका 'पार्वतिको राजा' अथवा 'हिमaaeपार्थिव' आदि नामों से उल्लेख करते हैं। जैन कथा साहित्य में भी पर्वत का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता और प्रचीन जैन लेवक उसके विषय में क्या जानते थे यह जानने का भी अभी कोई साधन उपलब्ध नहीं है ।
१ - इन्द्र कुमारियों का हिन्दू पौराणिक पराग में कोई उल्लेख नहीं मिलता। हेमचन्द्र उन्हें 'सप्तमातृका' नग्नी देवियाँ समझते हैं । ब्राह्मण परम्परा में सप्तमातृकाओं के दो समूह माने जाते हैं—एक महाभारत में वर्णित और दूसरा for gaji aero शैव ग्रन्थों में वति । ये शिव के पुत्र स्कंद की रक्षिकाएँ श्रथवा छाहियें मानी जाती हैं। युद्ध के देवता की रक्षिका होने से ऐसा विश्वास प्रचलित था कि वे अपनी शरण में आने वाले नृपतियों की रक्षा