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किरण १]
कविवर सूरचंद्र और उनका साहित्य
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कवि की प्राप्त रचनाओं में चातुर्मासिक व्याख्यान भाषा का रचनाकाल जैन-गूर्जर-कपित्रो भाग ३ पृ. १६०६ के अनुसार सं० १६६४ है यदि यह संवत् प्रति लेखन का न होकर ठीक नय निर्माण का ही है तो यह कवि की प्राप्त कृतियों में अनितम कही जा सकती है।
शिष्य-परिवार कवि ने अपने शिष्य हीरसार का उल्ले व सं. १६७६ में रचित जैनतस्वमार में किया है। अन्य शिष्य हीर उदय प्रमोद रचित चित्रसंभूति चौढालिया (मं० १७१६ जेसलमेर में रचित) उपलब्ध है।
रचनाएं संस्कृत
१ जैनतत्त्वसार सटीक-(पं० ४१००) रचनाकाल सं० १६७६ आश्विन शुक्ला १५ बुधवार के दिन अमरसर में पद्मबल्लभ के सहाय्य से रचित है । यह ग्रंथ अपने नामके अनुसार जैन तत्वों के सार को बड़ी खूबी के माथ सप्ट करता है ।
४ आपके रवि शाश्वत सर्व जिन पंचशिका गा० ५२ (१०सं० १५७४ सांभात) तथा शोलहकोसो (प्रारंभ के कई पद अप्राप्त) हमारे संग्रह में उपलब्ध हैं।
५ जैन तस्बसार के गुजराती एवं सटीक संकरण में हप्रिय से हर्ष पार प्रिय नामक दो व्यक्ति तथा चारित्र उदय शब्द से चारित्र और उदय दो भिन्न व्यक्ति होना माना है पर वास्तव में हर्षप्रिय और चारिनोदय एक-एक व्यक्ति का ही नाम है।
१ ग्रन्थ के रचनास्थल अमरसर को श्री कान्तिविजय जी महाराज ने पंजाबवर्ती अमृतसर बतलाया था, पर वह ठीक नहीं था। अतः हमने अमरसर स्थान के निर्णयरूप एक लेख जैन सत्य प्रकाश में प्रकाशित किया जिसके अनुसार अमरसर पंजाब का अमृतसर न होकर शेखावाटो का अमरसर निश्चित किया था।
२ प्रध को अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार किसो शवमतानुयायी के जीव और कर्म के सम्बन्ध में प्रभ करने पर उतारूप में इस प्रथ को रवना हुई है। विद्वान पंथकार ने इस ग्रंथ का___ अपर नाम या विशेषण जीव क विचार एवं सूरचंद्र मन स्थिरीकार दिया है। प्रन्थ में प्रभोतर के रूप में बड़े साल एवं सुंदर ढंग से जीव कम सम्बंध, ईश्वरकतत्व, प्रतिमापूजनादि पर विचार किया है प्रस्तुत ग्रन्थ की उपयोगिता के सम्बंध में अन्य सम्पादकों ने लिखा है:
"उपरोक्त पथ भी छिपे हुए रत्नों में से एक है उसका जितना ज्यादा प्रचार उतना ही तत्वज्ञान का ज्यादा प्रचार यह निविवाद है। (हिंदी आवृति)
'माय मां काए पोताना अनुभव ना व्यवहारु दृष्टांतो एटला बधा प्राप्या छे के तेथी तेमनी अप्रतिम व्यवहार दक्षता सिद्ध थाय छ। आवा व्यवहारु दृष्टांत अन्यत्र जोवामां आवता न थी।
प्रस्तुत पंथ को उपलब्धि सं० १९६३ में प्र० कांतिविजय जी को हुई थी भापकी प्रेरणा से बैद्यराज मगनलाल चुनीलाल के गुजराती भगद सह गैन प्रात्मानंद सभा, भावनगर से सं० १९६६ में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ तदनंतर जिनदत्तसूरि ब्रह्मवर्याश्रम पालोतान से गुजराती भनुवाद की २ भावृत्तियों व हिंदी की एक आवृत्ति प्रकाशित हो चुकी हैं।
सं० १९९७ में श्री बर्द्धमान सत्य नीति हर्षसूरि जैन ग्रंथमाला, महमदाबाद से इसका सटीक संस्करण प्रकाशित हुमा है।