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भारकर
[ भाग १७
बगल के सिंह, जिनका विरुद्ध दिशाओं की ओर मुख है; सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र
के प्रतीक हैं ।
धर्मचक्र के दाई', बाईं ओर रहनेवाले बैल और घोड़े का सम्बन्ध जैनप्रतीकों से . हैं। बैल इस काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का लांछन है तथा घोड़ा तृतीय तीर्थकर संभवनाथ का लांछन है; सम्राट् सम्प्रति ने द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के चिन्ह हाथी का प्रयोग इसलिये नहीं किया कि उसने शिलालेखों में हाथी का प्रयोग किया था । अतः प्रथम और तृतीय तीर्थंकर के चिन्हों को ति कर अपनी धर्मभावना का परिचय दिया ।
धर्मचक्र को बौद्ध संस्कृति से प्रभावित इतिहासकार बौद्धाम्नाय की मौलिक देन मानते हैं, परन्तु वास्तविकता कुछ और है। यह जैन प्रतीक है, प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने तक्षशिला में इसका प्रवर्तन किया था । यदि यह बौद्ध परम्परा का प्रतीक होता तो प्राचीन पाली साहित्य में इसको अवश्य महत्वपूर्ण स्थान मिलता । प्राचीन जैनागम में जो कि निश्चय बौद्धागम से प्राचीन हैं, धर्मचक्र का उल्लेख मिलता है तथा योजन प्रमाण सुविस्तृत सर्वरत्नमय धर्मचक्र की पूजा किये जाने का कथन वर्तमान है । धर्मचक्र प्राचीन जैन मूर्त्तियों पर भी अंकित मिलता है । कुषाणकाल से लेकर मध्य काल तक की जैन प्रतिमाओं के नीचे धर्मचक्र का चिन्ह अवश्य रहा है 1 मुगल काल में धातु प्रतिमाएँ भी छोटी बनने लगी थीं, जिससे इस सांस्कृतिक चिन्ह को प्रतिमा निर्माता भूल गये। पटना म्यूजिम में एक धातु का सुन्दर धर्मचक्र वर्तमान है, जो सातवी आठवीं शताब्दी का है । आरा के श्री आदिनाथ जिनालय, धनुपुरा में श्यामवर्ण की प्रतिमा के नीचे धर्मचक्र अंकित है। जैन पुराणों में बताया गया है कि प्रत्येक तीर्थंकर के समवशरण के दरवाजे पर सर्वतोभद्र यक्ष धर्मचक्र अपने सिर पर लिये खड़ा रहता था । अतः यह निश्चित है कि धर्मचक्र जैन संस्कृति का प्रतीक है ।
अतएव वर्तमान राजमुद्रा का जैन संस्कृति से सम्बन्ध है । बौद्ध संस्कृति से खींचतान कर कोई भले ही सम्बन्ध जोड़ने का उपक्रम करे, किन्तु तथ्य यही है कि सम्राट् सम्प्रति ने इस मुद्रा को स्तम्भ पर अंकित कराया था । गणतन्त्र भारत ने इस मुद्रा को अशोक मुद्रा के नाम से स्वीकार किया है; पर वास्तविक इतिहास को अवगत कर इसे जैनमान्यता मिलनी चाहिये ।