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श्रीजिनाय नमः
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जैनपुरातत्त्व और इतिहाम-विषयक पाण्मासिक पत्र
भाग १०
दिसम्बर ५६५० । पोप, वीर नि
. २४.
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किरण :
अख, अकस्मानिस्तान और ईरान में जैनधर्म
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ले--तुर व कामता प्रसाद जैन, M. R. A. S., D. L.?
नयम वातराग विज्ञान है, वह विशुद्ध धर्मनत्त्व है. इसीलिये वह विश्वधन का गया है। मानव जो अपने चैतन्य विज्ञान को प्राप्त होना चाहता है वह इस धर्मतत्व को पहिचानना. उस पर विश्वास जाना और उसकी चर्या में मगन हो जाता है। नाबा मदा ही धमतत्व का प्रतिपादन करते हुने सवत्र विचरे हैं। ऊरका पर हो अज्ञान अंधकार को मिटाना होता है। वह अपने अज्ञान शत्रु को जोतते हैं और लोक का ज्ञानदान देते हैं। यही कारण है कि जैन कथा ग्रन्थों में हमको गले प्रकरणा उन दर हर देशों के मिलने हैं. जहां जैनाचार्य और उनके शिया पहुंचे थे; माने व जागा को सम्बाधा और उनको धर्म के माग में लगाया। किन्तु समय के फेर ले उस प्रकार के जन जगत के दर्शन अब केवल भारत में ही होते हैं। जैन शासन सूर्य का अवसान मीयों के साथ हा हो चला----फिर तो जनों पर सर्वत्र आक्रमण हा हाते और जैन गौरव की लालिमा भी शेप न रही। इस दुर्दशा में जन कीति के दर्शन भारत के बाहर भला कहां से हो ? किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जैनधर्म भारत में हासमित रहाभारत के बाहर नहीं गया। एक समय तो जैनधर्म सारे मध्य या, लंका, बर्मा, चीन, तिब्बत, अफरीका आदि देशों में फैला हुआ था। हजारों वर्ष हो गये कि उसका स्थान अन्य धर्मों ने ले लिया। जिस लंका में जनधर्म राजधर्म कई शताब्दियों तक रहा और जैनाचार्यों ने वहां के शासकों से सम्मान प्राप्त किया तथा अपने मदिर और