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किरण २ ]
अरब, अफगानिस्तान और ईरान में जैनधर्म
राज्य का अन्त कर दिया था । इस इतिहास से स्पष्ट है कि अफगानिस्तान से भारतवासियों का सम्पर्क एक अत्यन्त प्राचीन काल से रहा /
जैन शात्रों में यद्यपि अफगानिस्तान नाम से कोई उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु फिर भी उन देशों के विवरण मिलते हैं जो अफगानिस्तान में हैं। वास्तव में अफगा निस्तान नाम अर्वाचीन है। पूर्वकाल में यह प्रदेश बहली अथवा बाल्दी और यवन (जौ) नाम से प्रसिद्ध था। जैन ग्रन्थ 'आवश्यक' नियुक्ति में उल्लेख है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का विहार अम्बड़, बदली, उल्ला, जोगग और पल्लव देशों में भी | 'महावंश' से प्रकट है कि योग देश में अमन्द एक मुख्य नगर था, जिसे विद्वानों ने काबुल के पास वाले नगर अलेक्जन्डरिया ( Alexandria) माना है'। जैनों का कथन है कि प्रथम चक्रवर्ती भरत ने इस क्षेत्र पर भी विजय प्राप्त की थी। बहली राज्य की राजधानी तक्षशिला थी । ऋमदेव ने विनीता का राज्य भरत को दिया था और बहुल देश का बाहुबली को शासनाधिकारी बनाया था। अफगानिस्तान में जो प्रदेश वल्ख नाम से प्रसिद्ध है, वही शचीन ही अथवा वाल्टक राज्य समझना चाहिये । जैन ग्रन्थों में गांधार देश का भी बहुत उल्लेख मिलता है। गांधार की राजधानियों पुष्करावती और तक्षशिला बताई गई हैं। संभव हैं किसी समय देश गांधार नाम से प्रसिद्ध हुआ हो। एकरावती आजकल पेशावर नामसे प्रसिद्ध है । अब वह पाकिस्तान में है। इन स्थानों पर जैन मन्दिर बने थे। तक्षशिला में भः महावीर की प्रतिता अनि प्रसिद्ध थी । करते हैं, वही चन्दन की प्रतिमा वीतभयनगर में पहुंची थी और गांवार के लोग - जैन श्रावकगण उसके दर्शन करने के लिये वीतभय जाया करते थे । ( आवश्यक ची पू० ३९९ ) उस समय भो भारतीय जया (यवन) आदि देशों को अनार्य समझते थे । जवादेश की परिचारिकाएँ भारत में बहुत प्रसिद्ध रह चुकी हैं। भरत चक्रवर्ती सिन्धुनदी को पार करके इन देशों में पहुंचे थे। इसे उन्होंने बहुत सुन्दर और रत्नों से भरपूर पाया था । बहली देशके घोड़े बहुत प्रसिद्ध थे । उसी प्रकार कम्बोज देशके घोड़े
हुए
भी भारत में प्रख्यात थे। काश्मीर के उत्तर में बदख्शा और घालचा का प्रदेश
१ हिन्दी विश्वकोष, भाग १५०६७८-६८०
२ श्री जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण में योग का उल्लेख यवनश्रुति नाम से हुग्रा है ।
३ महावंश २६ - २६ एवं इडियन हिस्ट० क्लास्टर्ली, १६२६ ५० २२२
४ श्रावश्यकचूर्णि पृ० १८० - Life in Ancient India, p. 270 ५. lbid ग्रा० चूरिंग पृ० १६०
6J. C. Jain, Life in Ancient India, pp. 264-290
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