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जिनचन्द्रसूरिजी को महाराजा अतूपसिंहजी के
दिये हुए दो पत्र
[ले -श्रीयुत वा० अगरचन्द नाहटा ] गुजरात एवं राजस्थान के राजाओं से जैनाचार्यों का बहुत अच्छा सम्बन्ध रहा है। प्राचीन काल में राजा प्रजा का ईश्वर समझा जाता था और राजा लोग धम गुरुओं को विशेष रूप से सम्मानित करते रहने थे। वे अपने सम्प्रदाय के गुरुओं की तो विशेष भक्ति करते ही थे, पर वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय के धर्माचायों के प्रति आदर भाव रग्बते थे। उनके लिये भेट, लवाजमे आदि की व्यवस्था रहती थी। समय समय पर राजा व गज्य का कोई विशिष्ट कार्य सम्पन्न कर देने पर प्राचार्यों को ग्रामादि भी मिलते थे, जिनमें से कई आजतक भी उनके कब्जे में है। इस प्रकार के सम्मान और राज्याश्रय के कारण उनके आवार विचार में शिथिलता आने लगी और प्रतिष्ठा के द्वारा उत्पन्न वातावरण में प्रभाव और विलासिता को प्रश्रय अवश्य मिला, परन्तु इसमें भी काई सन्देह नहीं कि इस भाँति के कार्यों द्वारा राजाओं को प्रभावित किये जाने पर धर्मप्रचार के कार्यो में सुगमता भी प्राप्त होती रही है।
भगवान महावीर आदि जैन तीथकर ता स्वयं राजा या राजपुत्र थे। अतः उनका अपने-अपने समय के राजाओं पर विशेष प्रभाव होना स्वाभाविक ही है, पर पवित्र एवं कटोर आचार विचार, असाधारण पाण्डित्य व मंत्र, ज्योतिष, वंद्यक आदि में सिद्ध हम्तता के कारण आपके श्राज्ञानुमती प्राचार्यों का भी अपने समय के हर जगह के राज्याधिकारियों पर प्रभाव कम नहीं रहा। प्राचार्य कशा ने प्रदेशी राजा को. आर्य सुहस्ती ने सम्प्रति राजा को, आ. सिद्धसेन दिवाकर ने विक्रमादित्य को, प्राचार्य बप्पट्टिसूरि ने आम राजा को, आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धराज व कुमारपाल को तथा मुसलमान सुल्तान महमद का जिनप्रभमूरि ने, सम्राट अकबर को हीरविजयसूरि एवं जिनचन्द्रसूरि ने प्रभावित किया था, जिसके यथेष्ट प्रमाण जैन इतिहास में पाये जाते हैं। इसी प्रकार दिगम्बर आचायों ने दक्षिण के अनेक राजाओं को जनधमानुयायी व अनुरागी बनाया था।
मध्यकाल में साम्प्रदायिक संघर्प भी चलते रहते थे अतः एक सम्प्रदाय के आचार्य व विद्वान के साथ दूसरे सम्प्रदाय के विद्वान से शास्त्रार्थ भी प्रचुर परिमाण में हुआ करते थे। उन शास्त्रार्थों का जनता पर अधिकाधिक प्रभाव हो इस उद्देश्य से वे