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भास्कर
[भाग १७
आंध्रों ने ब्राह्मणों को भी दान दिये थे। यवन (Indo-Greek) राजाओं में अधिकांश बौद्ध और जैन हो गये थे। मिनेण्डर नामक राजा अत्यन्त न्यायी और लोकप्रिय था। यवनराज ऐण्टिअल्किडस का राजदूत हेलिकोदोर वैष्णवमतानुयायी हो गया था
और उसने वेसनगर में विष्णुका गरुड़ध्वज वनवाया था। मि० विसेन्ट स्मिथ ने इन्डोग्रीक शासन के विषय में ठीक लिखा है कि "बजाय इसके कि भारतीय राजा और प्रजा हैलेनिक (ग्रोक = यवन) लोगों का अनुकरण करें, उस समय भारत में आनेवाले यवनों का, चाहे वे राजा हों या जनसाधारण, अवश्य ही हिन्दुत्व ग्रहण करने की ओर झुकाव रहता था।" (औक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया, पृ० १४२) यवनों के अनुरूप शक-छत्रप भी हिन्दुत्व से अछूते न थे-वे भी बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के अनुयायी हुये थे। उनमें बौद्ध और जैन धर्म की ही विशेष मान्यता थी। कुषाण काल में तो जैनधर्म और बौद्धधर्म चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुए थे। नहपान और उसके जमाता ऋषभदत्त ने ब्राह्मणों को भी दान दिये थे। महाक्षत्रप शोडास के राज्य. काल में मथुरा में वसु ने भ० वासुदेव का चतुःशाला मन्दिर और वेदिका बनवाई थी। कुषाण नृप विम के सिक्कों पर उसे स्पष्टतः 'माहेश्वरस' ( शिवभक्त ) लिखा है। इस वंशमें कनिष्क प्रसिद्ध और प्रभावशाली राजा हुआ । यद्यपि वह बौद्ध था. परन्तु उसके समय में जैन और वैदिकधर्मों की भी उन्नति हुई थी, जैसा कि इन धर्मों से सम्बन्धित प्राप्त अवशेषों से प्रकट होता है। वासुदेव नरेश तो स्वतः शैषधर्म के अनुयायी थे । इन ऐतिहासिक उल्लेखों को देखते हुये यह बात कुछ ठीक-सी नहीं जंचती कि यवन, शक, कुषाण आदि राजाओं के समय में ब्राह्मणों के प्रति घोर अत्याचार किया गया और उनके मन्दिर-मूर्तियां नष्ट की गयीं। अलबत्ता जैनधर्म और बौद्धधर्म का उत्कर्ष इस काल में विशेष होने के कारण वैदिकधर्म, राजधर्म नहीं रहा था। किसी भी उल्लेख से यह प्रकट नहीं होता कि इन राजाओं ने ब्राह्मणों पर अत्याचार करके हिन्दू मन्दिर नष्ट किये थे। विद्वानों को इस प्रसंग में और भी पुष्ट प्रमाण उपस्थित करना उचित है ।
४ कतिपय जैन शिलालेख स्व० कुमार देवेन्द्रप्रसाद जी के संग्रह में हमको निम्नलिखित शिलालेखों की प्रति. लिपियां उपलब्ध हुई हैं, जो उपयोगी जानकर यहां उपस्थित किये जाते हैं :
(१) किशन गढ़ स्टेट के रूपनगर नामक स्थान से लगभग डेढ़ मील दूर अवस्थित तीन जैन देवलियों पर निन्नातिन लेख पढ़े गये हैं :
१ 'संवत् १०७६ (१) ज्येष्ठ शुदि १२ श्री मेघसेनाचार्य्यस्य तस्य शिप्य, श्री विमलसेन पंडितेन राधना ( भावनां ? ) भावयिता दिवंगत । तस्मेयं निषिधिका ।।'