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साहित्य-समीक्षा घाला टीका समन्धित षट् खण्डागम ( वेदना खण्ड कृति अनुयोगद्वार )पुस्तक 8-सम्पादकः श्री डा. हीरालाल जैन एम० ए०, सहसम्पादकः श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री और श्री पं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र. जैन साहित्योद्धारक कण्ड-कार्यालय, अमरावती (बरार); . पृ० संख्याः १८+१५२, मूल्य : दस रुपये।
इस पुस्तक में भगवान परदन्त-भूतबलि विरचि । षटवण्डागम के चतुर्थ खण्ड के कृति अनुयोग द्वार की प्ररूपणा है। इसके प्रारम्भ में सूत्रकार ने 'णमो जिणाणं', 'णमो श्रोहि जिणाणं' आदि ४४ सूत्रों में मंगल किया है। टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने इन सूत्रों पर विस्तृत विवेचन लिखा है । इन ४४ मंगल सूत्रों में प्रसंगवश आधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, आठ प्रकार के निमित्त, बुद्धि, तप, विकिया, औषधि, रस, बल और अहीण इन सात ऋद्धियों का विस्तार पूर्वक प्ररूपण किया गया है। ४५ वें सूत्र में बतलाया गया है कि अग्रायणीय पूर्व की पञ्चम वस्तु के चतुर्थ प्राभृत का नाम कर्म प्रकृति है। इसमें कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति आदि २४ अनुयोग द्वार हैं। कृति के नाम कृति, स्थापना कृति, द्रव्यकृति, गणनकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति भेद हैं इन सात भेदों का इस अनुयोगद्वार में विस्तार पूर्वक वर्णन किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन और अनुवाद के सम्बन्ध में दो-चार बातों पर प्रकाश डालना अप्रासंगिक न होगा। 'उत्तरगुणिते तु धने' आदि करण गाथाओं का भाव स्पष्ट नहीं हुआ है तथा 'आदि त्रिगुणं' के स्थान पर अर्थ की दृष्टि से 'आदि त्रिगुणात्' पाठ ठीक जंचता है। पृ० २१८ पर 'ज्येष्ठामूलात्परतो' तथा 'एवं क्रमावृद्ध या' गाथाओं का अर्थ भी स्पष्ट नहीं हुआ है इन गाथाओं में 'शंकु रीति से छाया का पानयन कर अनध्याय काल का प्रमाण निकाला गया है। इन त्रुटियों के होते हुए भी सम्पादन सुन्दर हुअा है। अनुवाद में जहाँ-तहाँ शब्दानुवाद न कर भावानुवाद ही किया गया है। इस कार्य में श्री पं० फल चन्द जी सिद्धान्त-शास्त्री का सहयोग अब मिलने लगा है, यह अवगत कर अगले भागों के और भी सुन्दर बनने की आशा है। प्रत्येक साहित्य प्रेमी से अनुरोध है कि समस्त धवल ग्रन्थ को मंगाकर स्वाध्याय करे तथा प्रत्येक जैन मन्दिर
और जैन पुस्तकालयों के संचालकों को तो इस ग्रन्थराज को अवश्य ही मंगाना चाहिये। छपाई-सफाई सुन्दर है।