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किरण १]
विविध विषय
मानी गई हैं। इस काल में कुषाण-पूर्व काल के हिन्दू मन्दिरों के न मिलने के कारण यह अनुमान करना भी कुछ जंचता नहीं कि उनको कुपाणों और शकों ने नष्ट किया होगा । निस्संदेह जायसवाल जी की विद्वत्ता और गवेपणा आदरणीय है; परन्तु इस प्रकरण में उन्होंने जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे निर्णयात्मक नहीं प्रतीत होते । अतीने शक-अत्याचार का जो उल्लेख किया है, वह साधारण है और सुना हुआ । 'गर्गसंहिता' में शकराज को लोभी, पापी परन्तु बलवान लिखा है तथा यह भी लिखा है कि असंख्य क्रूर शकों ने जनता को दुश्चरित्र बनाया था । गुणाढ्य ने अलबत्ता लिखा है कि इन म्लेच्छों ने ब्राह्मणों को नष्ट किया और उनके यज्ञयाग क्रियायों में बाधाएँ उपस्थित कीं । वे तापस कन्याओं को उठा ले जाते थे ! उनसे कोई बुरा कर्म बचा नहीं था । (कथासरित् ० १८) किन्तु इससे भी यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने ब्राह्मणों के मन्दिरादि नट किये थे । 'महाभारत' ( वनपर्व अ०१८८ और १६० ) में सन् १५० से २०० ई० तक म्लेच्छराज्य होना लिखा है, जिसमें वर्णाश्रमी वैदिक धर्म का ह्रास होगा। आंध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाल्डीक और सूर आभीरों का शासनचक्र चलेगा । इस काल में वर्णाश्रमी जाति-पांति की उच्चता-नीचता का सर्वथा अभाव हो गया था; ज़ैन और बौद्ध आचार्यों ने सभी मानवों की एक जाति घोषित की थी। आंध्र, शक, पुलिन्दादि राजा लोग जैन और बौद्ध धर्म में दीक्षित किये गये थे, जिसके कारण श्रमण परम्परा का उत्कर्ष हुआ था । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शकादि इतने नृशंस थे कि उन्होंने ब्राह्मणों को तलवार के घाट उतारा और उनके धर्मायतन नष्ट किये -- जैन और बौद्ध धर्म अहिंसा का उपदेश देते रहे और शकादि उस उपदेश को मान्य करते थे । अतः शकादि का ब्राह्मणों के प्रति यही अत्याचार हुआ कि उन्होंने उनकी धार्मिक मान्यताओं को प्रश्रय ही नहीं, बल्कि उनको पनपने भी नहीं दिया । इसलिये ही 'महाभारत' में लिखा है कि सारा देश म्लेच्छ हो गया था । कुछ ऐसा विदित होता है कि प्रारम्भ में जैनों और बौद्धों ने इस म्लेच्छ समझे जानेवाले मानवों में अने धर्म का प्रचार कर के श्रमण संस्कृति को आगे बढ़ाया था। उनकी इस सफलता को देखकर ब्राह्मणों ने भी करवट बदली और वर्णाश्रमधर्म की मान्यता को शिथिल करके शादि को वैष्णव धर्म में दीक्षित किया था । शक, छत्रप आदि राजाओं के अभिलेखों से यह सिद्ध है कि वे ब्राह्मणों का आदर करते थे और उन्होंने ब्राह्मणों को दान दिया तथा मन्दिर बनवाये थे । नानाघाट का आंध्रवंश के राजा का लेख एक यज्ञ के अवसर पर खुदवाया गया था ।
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