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किरण १]
रूप और कर्म - एक तुलनात्मक वैज्ञानिक विवेचन
दूसरों को न चे गिरा रहने को मजबूर करने या गिरा रखने के कारण उनके द्वारा किए गए बुरे कर्मों और पात्रों का जिम्मेदार ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं है । परिस्थितियों से मजबूर विवश एवं बेकाबू होकर कोई दुखी पाप करने को बाध्य होता है तो उसकी कैसे दोषी कहा जासकता है । उसे उचित साधन सुविधा एवं सहयोग देकर अच्छा या योग्य बनाना यह धर्म, समाज तथा देश और संसार के विज्ञान एवं समर्थ और प्रभाव रखने वाले सभी समझदार व्यक्तियों का कर्त्तव्य है । ऐसा न कर हम धर्म से च्युत तो होते ही हैं मनुष्यता से भी वंचित होते हैं । ऐसा करके ही हम पुरुषार्थ तो सिद्ध करते ही हैं अपना ओर लोक का सच्चा कल्याण करते हुए अपनी सच्ची उन्नति करते हैं और संसार की उन्नति होने से पुनः अपनी भी दोहरी उन्नति होती है । यही अपना असली स्वार्थ है और यही परमार्थ भी । यही कर हम सुख एवं परम सुख को समुच पा सकते हैं। आज विश्व में चारों तरफ जो विमनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं वे इसी कारण हैं कि वस्तु के असल स्वरूप, प्रकृति और गुण के ज्ञान का प्रकाश बहुत कम रह गया है । जहां है, वहां भी प्रमाद के कारण उलटी प्रवृति ही अधिक दीखती है। निम्न स्वार्थ को हो लोग स्वार्थ समते हैं। वही सब कुछ समझ लिया गया है । इन सबका निराकरण एवं निर्मल वस्तु समाव ज्ञान की प्राप्ति जैन सिद्वान्तों में वर्णित जीव और पुद्गल तथा दूसरे सहायक द्रव्यों के रूप और क्रिया प्रक्रिया के मनन और ग्रहण तथा व्यापक प्रचार द्वारा ही हो सकता है । संसार में अहिंसा का प्रचार और स्थायी शान्ति तथा सर्वत्र सच्चे सुख की स्थापना भी इसी सच्चे ज्ञान द्वारा संभव है । हरएक जैन मात्र का कर्त्तव्य यह नहीं है कि यथाशक्ति तन-मन-धन द्वारा इसको अपना सच्चा कल्याण स्वरूप समझ कर सारे भेदभाव दूरकर संयमित, संतुलित और एकत्रित उद्योग में अपने को लगा दे ? धनियों को अपने धन का सबसे उचित उपयोग करने का दूसरा केई अवसर इससे बढ़कर नहीं आ सकता न विद्वानों को अपनी विद्या का ही । घमंड और लज्जा छोड़कर इस परम पावन और परम आवश्यक कार्य में शीघ्रातिशीघ्र जुट जाना, लगजाना, संलग्न हो जाना ही समय की माँग और परमहितकारी है ।
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मनुष्य प्रकृति वर्गणात्रों से उत्पन्न होती है और उन्हीं के प्रभाव में परिचालित रहती है । उसमें परिवर्तन लाने के लिये दृढ़ निष्ठा और भावनाओं की कार्यरूप में परिणत करने से ही कुछ सुधार की आशा हो सकती है। किसी कार्य का असर तुरंत न होकर उपयुक्त समय पर ही होता है | तुरंत असर या फल या प्रभाव न दिखलायी देने से निराश होने की जरूरत
नहीं । कार्य करने पर वर्गणाओं की बनावट में हर जगह परिवर्तन होकर अपने आप उपयुक्त फल देगा | हाँ कर्म और उद्योग एवं प्रयत्न का आरम्भ अभी से कर देना; यदि तक न किया हो तो, आवश्यक है । आशा है कि मानवता के हितचिन्तक, अपने सच्चे स्वार्थ की
की सिद्धि के बाधक और लोक कल्याण के इच्छुक इधर अवश्य ध्यान देंगे ।