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भास्कर
[भाग १७
एक प्रकार से ठीक कहा जा सकता है। संभवतः अन्धा होने के पूर्व कुणाल अवन्ति का युवराज था, अतः यहाँ का शासन भार कुणाल के हाथों में रहा हो । अन्धा होने के पश्चात् उसने अपने पिता अशक से इसलिये अपने पुत्र के लिये राज्य को याचना की थी कि अन्धा होने के कारण उसके हाथ से गया हुआ उज्जयिनो का राज्यभार उसके पुत्र को मिल जाय। क्योंकि महाराज अशोक ने कुणाल के अन्धा होने के अनन्तर अपने दूसरे रा: कुमार को श्रवन्ति का शासक बना दिया थः । तथा कुणाल की गुजर-बसर के लिये एक-दो गाँव दे दिये थे। इस प्रकार के विचित्र असमंजस कारक परिस्थिति में कुणाल को या उसके पुत्र सम्प्रति को अन्ति का शासन मिलना जरा काठन था; इसीलिये बुद्धिमान कुणाल ने नरकीय सोय कर राजा को वचन बद्धकर अधिकार प्राप्त किया।
__ मेरे इस कथन का अभिप्राय यह है कि अशोक के पश्चात् कुणान ने शामन नहीं किया; किन्तु उसकी जीवित अवस्था में कुछ दिनों तक युवराज पद का भार कुणाल के ऊपर रहा था। अवन्ति में अमात्यों की परिषद को सहायता से कुणाल ने राज्य कार्य किया था। अशोक की मृत्य के पूर्व सम्प्रति युवराज पद पर प्रामी था नया अवशेष चार करोड़ मुबगदान. जिसे अशोक खजाने में कुकटाराम पहचाना चाहता था, सम्प्रति ने रुकवा दिया था। युवराज काल में सम्प्रनि अवन्ति का शासक भी था। आर्य सुइम्ति से सम्प्रति ने युवरातकाल में ही जैनधर्म को दीक्षा ली थी. इसी कारण जैन लेखकों ने उसे दक्षिा के समय यवगत या अन्ति शामक लिया है। दिव्यावदान और अवदान कल्पलतान नामक बौद्ध ग्रन्थों में रए बनाया गया है कि अशोक की मृत्यु के पश्चान बौद्ध मंघ में चार करोड़ स्वर्ण दे कर सम्प्रति राज्यासन पर प्रतिष्ठित हुआ था। इसने अशोक के दान को रोक दिया था, इसलिये बौद्ध लेखकों ने इसकी निन्दा की है, इसे लोभी. मदान्ध आदि कहा है। १-परितबिना उजेगी श्ररागाम्म दिसणा-कल्पचुगि २---गङ्गान्त्रुमाररुचिगं चतुरम्बुगशि बलाविलामवसनां मलयावतंसाम ।
दत्वाऽखिला वसुमती म समाससाद, पगयं प्रमाण कल नाहितं हिनाय || प्रग्न्यात पगण यति कोटिमुवर्ण दाने, याते दिवं नग्पतावथ तमा पात्रः ।
शेपेण मन्त्रिवचसा क्षितिमाजहार, स्पष्टक्रयी कनककाटि चतुप्रयेन ॥ x x x अवदान कल्य ल० ५० ७४ श्लो० ११-१२
एप राज्ञो शोकस्य मनोरथो अभूय काटिशनं भगवच्छासने दानं दास्यामीति तेन पगणवति. कोटयो दत्ता यावद् गज्ञा प्रतिषिद्धाः, तदभिप्रायेण गज्ञा पृथिवी मंधे दत्ता यावदमात्येश्चतस्राः कोटयो भगवच्छासने दत्वा पृथिवी निष्क्रीय संपदी राज्ये प्रतिष्ठापितः। - दिव्यावदान २६