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मुनिशाभ्युदय--ऐतिहासिक काव्य
[ले०-श्री १०८ श्राचार्य देशभूषण महाराज ] मुनिवंशाभ्युदय ऐतिहासिक रचना है । दिगम्बर जैन साहित्य में राजावलिकथा और मुनिवशाभ्युदय दोनों ही रचनाएँ कन्नड भाषा में प्रमाणिक मानी जाती हैं। उपलब्ध प्रन्थ में पाँच सन्धियाँ हैं। प्रथम सन्धि में १६० पद्य हैं। प्रथम पद्य से लेकर ६६ वें पद्य तक देवता स्तोत्र, चिकदेव राजा की स्तुनि, राजा के लक्षण, मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था, राज्यव्यवस्था के उपादान एवं राजनीति का सामान्य वर्णन किया गया है। ६७ वे पा से ६ पय नक मन्त्री के लक्षण, गुण, दोष एवं दायित्व का निरूपण किया गया है। ८० व पदा से लेकर सन्धि के अन्त तक देश, दुर्ग एवं सैन्य रक्षण के उपाय
और आवश्यकता पर जोर देते हुए चिकदेवगजा की राज्यव्यवस्था का दिग्दर्शन कराया है। हम सन्धि में राजा विक व का राजनीनिक दृष्टि से इतिवृत्त दिया गया है। यद्यपि वर्णन शजी काव्यात्मक है. फिर भी कवि ने पतहासिक तथ्यों की व्यंजना श्राने ढंग से की है।
इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का प्रारम्भ द्वितीय सन्धि से हुआ है। इस सन्धि के द्वितीय तृतीय पदा में चिकदेव राजा के गुणों का निरूपण करते हुए इस राजा की वंशावली का प्रतिपादन किया गया है। चौथे पग में बताया गया है कि कवि को गजा के साथ किस प्रकार मित्रता प्राप्त हुई और कैसे उसे सत्य इतिहास प्रकट करने की प्रेरणा प्रान हुई । ५ वे पदा से लेकर ३६ वें पद तक बताया गया है कि चिकदेव राजा के वंशवालों ने मैमूर में राज्य किस प्रकार किया। इनके पूर्वराज चामराय बडेय मैसूर से चलकर शासन निरीक्षण के लिये श्रवणबेलगोन पाये और दक्षिण प्राचार्यों के सम्बन्ध में पूछ-ताछ की। ३७ वें पद्य से २७ पद्य तक बताया गया है कि बोम्मन नाम के कविने राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि इस वंश के चारुकीर्ति पंडिताचार्य जगदेव नाम के तेलंग देश के राजा के विरोध के कारण भल्लातकीपुर के राजा भैरवदेव के यहाँ हैं।
राजा ने चारुकीति पंडिताचार्य को वापस बुलाने की आज्ञा दी और वह वहाँ की शासन व्यवस्था को व्यवस्थित कर श्रीरंगपुर पट्टण में लौट आया। एक समय राजदरवार में मन्त्रवाद का प्रसंग उत्पन्न होने पर पद्म पंडित और पद्माण सेट्टि के परामर्श के अनुसार चारुकीर्ति पंडिताचार्य को सम्मान पूर्वक बुलाया। चाहकीर्ति की विद्वत्ता, त्याग और गुणों से मुग्भ होकर राजा ने क्षेत्र, प्रामादिक भेंट देकर श्रवण