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किरण १]
मुनिवंशाभ्युदय - ऐतिहासिक काव्य
पाँचवीं सन्धि के प्रारम्भ में मंगलाचरण करने के उपरान्त बताया गया है कि चन्द्रगुप्त नन्दिसंघ के चार हजार मुनियों के अधिपति हो अपना पट्ट पद्मनन्दि आचार्य को दे आत्मशोधन में प्रवृत्त हुए। कुछ काल के अनन्तर देवसंघ और शिवसंघ में योग्य पट्टाधीशों के न होने के कारण ये दोनों सब भी नन्दिसंघ में मिल गये और इन तीनों के एकीकरण का नाम पश्चिमोत्तर संव। पश्चिम + उत्तर + दक्षिण ) पड़ा । इस सन्धि में आगे बताया गया है कि देवल्याचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य, उमास्वामि पदाचार्य पद्मनन्दि पद्मनन्दि मुनिवर और कुन्दकुन्दाचार्य ये पांच नाम पद्मनन्दि आचार्य के हैं। पश्चिमोत्तर मंत्र के अधिपति से ही आचार्य हुए थे। ५४ वें पद्म से ६६ वें पद्य तक बताया गया है कि पद्मनन्दि आचार्य ने अपना पट्ट बोरनन्दी श्राचार्य को दिया । वीरनन्दि आचार्य ने चन्द्रमका लिखा है ।
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इस सन्धि के पथ में चन्द्रमा के विषय का वर्णन है तथा वीर न्दी श्राचार्य के सम्बन्ध में ज्ञाय बातों पर प्रकाश डाला गया है। बीरनन्दी ने अपना पद गोलाचार्य को दिया । गोलाचार्य ने अपना पद महीकाका लग्नाचार्य को दिया । उन्होने सिद्धान्त चक्रवर्ती को दिया । पद्मसिद्धान्त चक्रवर्ती ६००० सुनियों के संघ के अधिपति थे । इस मंत्र में एक मुनि शाकटायन नाम के थे, जिन्होंने शदानुशासन नाम का व्याकरणग्रन्थ लिखा तथा अपने नाम पर इस ग्रन्थ का नाम भी शाकटायन रखा । इस ग्रन्थ पर अमोघवृत्ति नाम की महत्त्वपूर्ण टीका लिखो । इस प्रकार व्याकरण शास्त्र को व्यवस्थित शाकद मुनि ने किया । कालान्तर में सिद्धान्तवक्रवती अपना पद उन्हीं शाकटायनचार्य को देकर आत्मशोधन में लीन हुए। यह सकलशास्त्र पारंगत हो कर 920 मुनियों के मध्य में चन्द्रमा के समान शोभित होते थे। इनके तत्वावधान में मुनि सब ने अनेक देशों में विहार कर जैनधर्म का प्रचार किया। इसके पश्च न इस संघ में कुनभ्रूण मुनि देवनन्दा ती देव और प्रभाचन्द्र मुनि ये नार प्रभावक आचार्य हुए। इन चारों सबसे अधिक प्रभावक कुलभूषणा हुए, जिससे संघ का प्रमुख कार्यभार आपके ही उपर आकर पड़ा । अशेष तीनों आचार्य भी प्रभावनाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हो जैनधर्म की प्रभावना करते रहे ।
भट्ट अकलंक
इस सन्धि के १४५ वें पद्य में बताया गया है कि देवी ने पद्मावती देवी की साधना की तथा रसायन आदि अनेक विद्याओं की सिद्धि प्राप्त की । ११६ वें पद्य में कहा गया है कि प्रभाचन्द्र मुनि ने ज्वालामालिनी देवी की साधना कर अनुपम ख्याति प्राप्ति की तथा नाना प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना कर धर्म को उन्नत बनाया ।