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भास्कर
[भाग १७
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महाराज रामचन्द्र जी ने वहाँ से प्रस्थान किया और वे गोम्मट विष को उठाने लगे तो वह उठ नहीं सका, वहीं स्थिर हो गया। इधर पार्श्वनाथ बिम्ध को भी जब सोमादेवी ने उठाया तो, वह भी अधर में ही रह गया, जिससे उसी दिन से इसका नाम अन्तराल पार्श्वनाथ या अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ पड़ गया। इन दोनों बिम्बों के लंका में रावण मन्दोदरो सहित पूजा किया करता था।
भगवान नेमिनाथ तीर्थकर के तीर्थकाल में एक दिन भ्रमण करते हुए अर्जुन और भीम विन्ध्यगिरि पर आये। यहाँ विशाल काय गोम्मट म्यामो के निम्ब को देवकर बहुत प्रसन्न हुए और जिन दर्शन कर अपने को धन्य माना। पहाड़ पर निगवरण मूर्ति को खड़ी देवकर अनि सोचने लगा कि यः मुनि इस प्रकार निगवरण रद कर सुरक्षित नहीं रह सकेगी। शोन. अानप और वर्षा के कारगा इसमें विकार बाने की संभावना है अतएव इसकी सजा का प्रबन्ध करना नितान्त आवश्यक है। दोनों भाइयों से सलाह कर उस विशाल मूनि की रक्षा के लिये यह तय किया कि इसे पत्थर की विशाल चट्टानों से ढक देना चाहिये। अपनी इम मलाह के अनुसार भीम ने बड़ी-बड़ी चट्टानों को लाकर गम्मटम्वामी के बिम्ब को ढक दिया ।
यह महाराज चन्द्रगुप्त प्राचार्य के इस कथन को सुनकर बहुन प्रभावित हुए। उनके मन में इस मूर्ति के उद्धार की भावना जाग्रत हुई। चन्द्रगुप्त ने पहाड़ पर एक मन्दिर का निर्माण कराया तथा प्राचाय मागत का उपदेश मृत पान किया। धर्मा पदेश को सुनकर चन्द्रगुप्त के मन में अन्य न विरक्ति उत्पन्न हुई श्रीर दानणाचार्य के चरणों में दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। प्राचार्य महाराज ने चन्द्रगुप्त के मानक पर पीछी रखकर अाशवाद दिया। चन्द्रगुप्त गोम्मट स्वामी के मनि का उद्धार तो नहीं कर सका, किन्तु अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ का मृत्ति को अपने बनाये मन्दिर में स्थापित कर प्रतिष्ठित किया। दक्षिणाचार्य भद्रबाहु मुनि ही थे ! इनके चरणों में नमोऽस्नु कर तीन सौ राजकुमारों के साथ चन्द्रगुप्र ने दीक्षा ग्रहण की। इस मन्धि में आगे नवीन राजकुमारों और चन्द्रगुम मुनि की तपस्याओं का वर्णन किया गया है। भद्रवाह स्वामो ने अपना निकट समय जानकर चन्द्रगुप्र को दक्षिणाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया और वह स्वयं समाधि प्राण कर आत्मकल्याण में लग गये। इससे आगे चन्द्रगुप्त की योग्यता, ज्ञान, तपश्चर्या आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। इन्हें सिद्धान्त शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान था, इनकी कीति सर्वत्र व्याप्त थो। पट्टाचार्य हो चन्द्रगुप्त प्राम, नगर, खेट, कर्वट, पत्तन, आदि में धर्मोपदेश देते हुए विहार करने लगे।