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[ भाग १७
अनादिकाल से अब तक न जाने कब निर्मित या इकट्ठी हुई थीं कहना कठिन है । अनादिकाल से तक इनका आदान प्रदान एवं एक दूसरे के साथ क्रिया प्रक्रिया भीतर तथा बाहर से और जाने वाले पुद्गल संघों के साथ होती ही आती है। "मनोवर्गणा” का पुंजीभूत विशिष्ट आकार प्रकार ही "मन" है उसकी क्रियाएं भी अव्यवस्थित न होकर निश्चित फतरून ही होती हैं। मनुष्य का स्वभाव तो फिर निश्चित एवं सीमित होने से अच्छा या बुरा अपने आप वर्गणाओं के प्रभाव में चलता रहता है।
भास्कर
मानते हैं वह सब स्वतः ही
मिलने बिछुड़ने इत्यादि से सत्य एवं संपूर्ण इकाई है
मानव जन्म एक विविष्ट योनि में, किसी विशेष स्थान में और किसी खास व्यक्ति के ही यहां होना भी इन वर्गणाओं की ही करामात का ज्वलन्त उदाहरण है ' । कहने का तात्पर्य यह कि संसार में या विश्व में जो कुछ बनता बिगड़ता, नया उत्पादन, हेरफेर, जन्म मृत्यु, सृष्टि, पालन-पोषण, विनाश इत्यादि जिन्हें लोग किसी कर्ता का कर्तृत्र स्वाभाविक गति एवं नियमित रूप में इन पुद्गलों या पुद्गल संघों के ही होता रहता है । सारा विश्व एक अभिन्न, अविनाशी, शास्वत इसका कोई भाग अलग नहीं - सबका असर सब पर अक्षुण्ण रूप से द्वेष-विद्वेष इत्यादि के विचार हनिकारक एवं मूलतः भ्रमपूर्ण हैं । कोई व्यक्ति, समाज या देश अलग अलग सच्चा सुख श्रौर स्थायी शान्ति स्थापित नहीं कर सकते न पा ही सकते हैं । यह अवस्था तो आखिर विश्व को एक समझ कर उचित व्यवस्था द्वारा कुछ करने से ही उपलब्ध हो सकती है। जैनियों को भी आपसी विग्रह की भावनाएं एवं नीच ऊंच के विचार त्याग कर संसारोत्थान में सहयोग देना ही हर तरह उनके तथा संसार के कल्याण का दाता हो सकता है ।
अवश्य पड़ता है । भिन्नता
कर हर एक को
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" समता-वाद",
वस्तु स्वरूप पर अनेकान्तात्मक ध्यान रखना ही जैनवना है । सचा धर्म वही है जो मानव मानव में विभेद न करे । आत्मा सभी का शुद्ध और शरीर सभी का पुद्गलमय एक सा ही पवित्र या अपवित्र जैसा समझा जाता है। कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं कोई भी न जन्म से पवित्र है न पवित्र । अतः शूद्र, अशुद्ध, छूत छूत के भेदभाव त्याग समान देखना तथा व्यवहार करना ही जैन धर्म का मूलमंत्र तथा प्राण है - " समदर्शी भाव', ही असल जैनत्व है । यही मनुष्यत्व भी है इसका आचरण ही जैन धर्म का श्राचरण है। अच्छा बुरा स्वभाव तो पुद्गलनिर्मित वर्गणाओं द्वारा ही परिचालित होने से दोषी कोई नहीं; हां इन वर्गणात्रों की बनावट में तबदीली लाने के लिए शुद्ध भाव, अच्छे कर्म एवं उपयुक्त शिक्षा, संस्कृति और समान सुविधा की श्रावश्यकता सर्वप्रथम है । हिंसा का पालन भी समानाचरण और समभाव या समता द्वारा ही हो सकता है अन्यथा तो प्रमाद और देखें" अनेकांत वर्ष १० किरण ४-५ में प्रकाशित मेरा लेख "जीवन और विश्व के परि० का |
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