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[ भाग १७
वह दूसरा कर ही नहीं सकता। सांप के शरीर की वर्गणाओं का निर्माण ही ऐना है कि जो कुछ भोजन करेगा उसमें से विप भी अवश्य तैयार होगा । गाय जो कुछ खायेगी उसमें से दूध भी अवश्य तैयार होगा । शरीर और मन का अन्योन्याश्रय संबन्ध है । गाय जब तक बच्चे वाली
भास्कर
रहती है तभी तक दूध देती है । बाद में वही भोजन उसके अन्दर जाने पर भी दूध नहीं उत्पन्न करता । सबका परिवर्तन होता रहता है । खानपान द्वारा या प्रकाश किरणों द्वारा या श्वासोवास इत्यादि द्वारा बाहर से वर्गणाओं का समूह हमारे शरीर के अन्दर जाता रहता है। वहां विद्यमान वर्गणओं से मिल बिछुड़ कर क्रियाक्रिया द्वारा सब कुछ बनता बदलता रहता है। अतः मनुष्य का स्वभाव, रीति नीति या बात व्यवहार बदलने के लिए उसको बनाने वाली वर्गणाओं में परिवर्तन आवश्यक है ।
किसी मनुष्य का प्रभाव, व्यक्तित्व, और स्वभाव की विचित्रता सब कुछ वर्गों की बनावट पर ही अवलम्बित होने से उसके शरीर की बनावट रूप रेखा या सब कुछ उसका निश्चित और अभिन्न रूप से संबन्धित है !
हर वस्तु या शरीर से अगणित रूप में अजस्त्र प्रवाह पुद्गलों का निकलना रहता है जो एक दूसरे के शरीर में घुम कर आपस में एक दूसरे पर प्रभाव डालता रहता है। ऐसी वर्गणाएं भी निकलती हैं जिनकी शक्ल सूरत टूबहू उसी तरह की होती है जिस वस्तु या देह से वे निकलती हैं जब ये ही वर्गणाएं हमारे नेत्रों में घूमती हैं तो वहां अपनी प्रतिच्छाया से किसी वस्तु या सत्य या शरीर की रूपरेखा रंग वगैरह का श्राभास कराती हैं। प्रतिविवों का ज्ञान भी इसी तरह होता है । हर एक मानव शरीर से उस मानव की आकृति की वर्गगाएं केवल रूप देवा ही नहीं बनाती बल्कि उस मानव के गुण स्वभाव को भी लिए रहती हैं, जिनका असर बाहरी संसार पर उसी अनुमार पड़ता है | सत्पुरुष का भला और निम्नकर्मी का निम्न | इतना ही नहीं हम जैना जिस वस्तु या शरीर या प्रतिछवि का ध्यान करते हैं हमारे अन्दर वैसी ही उमी अनुरूप वर्गणाएं निर्मित होती हैं जो बाहर भी निकलती हैं और अपने अन्दर भी प्रभाव डालती हैं- शुभ दर्शन या प्रच्छे लोगों और वस्तु की मूर्तियां या छवि चित्र देखना और ध्यान करना शुभकारक है ।
इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति किसी विशेष वस्तु या व्यक्ति के रूप का ध्यान करता है तो वर्गणाओं का उसी रूप में निर्माण होकर हमारे अन्दर उन रूपाकृतियों का भान कराता है। प्रेत मा भूत बाधा भी इसी क्रिया (phenomena) के फल स्वरूप है । जब किमी डर, भय या श्राशंका इत्यादि के कारण एक जबरदस्त भावना किसी व्यक्ति के मन के अन्दर सहसा या समय के साथ बैठते-बैठते बैठ जाती है तब वह उसी रूप का दर्शन और ध्यान इतनी एकाग्रता एवं मजबूती से करने लगता है कि वर्गणात्मक रूपों का निर्माण स्वयं उसके शरीर की गठन को एक दूसरे रूप के शरीर के समान चारों तरफ से घेर और जकड़ लेते हैं । यह वर्गणात्मक रचना दृश्य नहीं