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भास्कर
[भाग १७
में होने से हमने ऋषभदास उल्लिखित सूरचंद के ही सूरचंद्र होना संभव है ऐसा अनुमान अपने युगप्रधान श्री जिनचंद्रमरि ग्रन्थ में किया था पर उनकी कृतियों प्रचुर संख्या में न मिलने से निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता-यह भी सूचित कर दिया गया था। हवर कुछ वर्षों के
अन्वेषण द्वारा सूरचंद्र की कतिपय रचनाएँ और मिलीं । संख्या में अधिक न होने पर भी वे सभी विशिष्ट होने से उक्त संभावना को पुष्टि मिली है अतः प्राप्त रचनाओं का परिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है।
कवि-परिचय कवि के जन्म स्थान, संवत् , माता-पिता व वंश के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राम नहीं है। प्राप्त रचनाओं में श्रृंगार रसमाला सं० १६५६ की होने से व उसकी भाषा राजस्थानी होने से श्रापका जन्म एवं दीक्षा का समय १७ वीं शती का पूर्वार्द्ध व जन्मस्थान मारवाद ज्ञात होता है । गुरुवंश-परम्परा कवि के जैनतत्वसारानुसार इस प्रकार है
जिनभद्रसूरि' शाखा
मेम्सुदर क्षतिमंदिर' हर्षप्रिय चारित्रोदय
वीरकलश
घा० सूरचंद्र-पद्मावल्लभ
हीरसार कविवर सूरचंद्र ने यद्यपि जिनभद्रसूरि से अपना (शाखा रूप) सम्बन्ध स्थापित किया है पर अन्य माधनों से वे जिनदत्तसूरि शाखा के ज्ञात होते हैं। जिनभद्रसूरि के समय में तो मेरुदर के गुरु रत्न. मूति जी के गुरु वा० शीलचंद्र जी थे जिन्होंने जिनभद्रसूरि जी को भागमादि का अध्ययन करवाया था। देखें-हमारा युगप्रधान जिनदत्तसूरि ग्रन्थ पृ० ६६
२ आप बड़े अच्छे बालावबोध-भाषा टीकाओं के रचयिता थे। देखें हमारा उक्त जिनदत्तसूति ग्रन्थ पृ०७०
3 जैन तत्वसार के तीनों संस्करणों (गुजराती) हिन्दी व स्वपोज्ञ टीका वाले, में कवि का वंशवन देते हुए नातिमंदिर जी का नाम विशेषण समझ कर छोड़ दिया है यह अनुकरण ननितभूल ही प्रतीत होती है हर्षप्रिय जी ने शील-इकतीसी में इन्हें अपना गुरु लिखा है:
"श्री शान्तिमंदिर गुरु प्रसादह, हर्षप्रिय पाठक भगत ॥३१॥"