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किरण १]
चन्द्रगुप्त और चाणक्य
वे सब इस नवागन्तुक संन्यासी के पास पहुंचे और पूछा कि 'महाराज अब कितने दिन यह युद्ध और चलेगा ?' उसने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया 'जब तक नगर में ये देवियाँ बनी रहेंगी, युद्ध चलता रहेगा।' नगरनिवासी इस छद्मवेशी संन्यासी के छल को न भाँप सके। उन्होंने तुरन्त सब देवी मूर्तियों को उखाड़ कर अन्यत्र पहुँचा दिया। चाणक्य ने तुरन्त चन्द्रगुप्त और पर्वत के पास यह समाचार भेज दिया और नगर पर तत्काल जोर का आक्रमण करने का आदेश दिया। जब विपत्ति का निकट अन्त होने की आशा के आनन्द में फूले हुए नगर निवासी असावधान हो रहे थे तो आक्रमणकारी सेना ने एक जोरदार घावे में ही नगर को सुगमता से हस्तगत कर लिया। अब तो एक के पश्चात नगर, ग्राम, दुर्ग, गढ़ उनके हाथ आते चले गये और चाणक्य के नेतृत्व में इस विजयी सेना ने शीघ्र ही पाटलिपुत्र पर्यन्त समस्त प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् दोनों नायक-चन्द्रगुप्त और पर्वत ससैन्य नन्दराजधानी पाटलिपुत्र की ओर अग्रसर हुए और उसका घेरा डाल दिया। भीषण आक्रमण और युद्ध के पश्चात् राजानन्द ने 'धमद्वार' नामक नगरद्वार के निकट प्रात्म-समर्पण कर दिया और चाणक्य से प्राणरक्षा की याचना की । चाणक्य ने द्रवित हो उसे सपरिवार नगर और राज्य का त्याग कर अन्यत्र चले जाने की अनुमति देदी और यह भी कह दिया कि अपने साथ अपने रथ में जितना धन वह ले जा सके वह भी ले जाय । अस्तु, राजानन्द ने अपनी दो पतियों और पुत्री के साथ जितना धन वह ले जा सका लेकर रथ में सवार हो नगर का परित्याग कर दिया। जाते हुए मार्ग में नन्द की कन्या-दुधरी अथवा सुप्रभा ने चन्द्रगप्त को जो देखा तो वह प्रथम दृष्टि में ही उसपर मोहित होगई और फिर फिर कर प्रेम व्याकुल दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी। चन्द्राप्त की भी वही दशा हुई और वह भी अपनी दृष्टि उप सुन्दरी की ओर से न हटा सका। करती है। शिलालेखों से पता चलता है कि प्रनीन कदंब और चालुक्य नरेशों (जिनमें से अनेक जैनधर्मानुयायी थे) में इन सप्तमातृकात्रों की मान्यता थी। हेमचन्द्र के अनुसार तो वह नगर भी सुरक्षित और अजेय हो जाता था जहां इन देवियों की पूजा प्रतिष्ठा होती थी (परि०८, ३०३) गंगधार और विहार शरीफ से प्राप्त अभिलेवों से अनेक नगरों में इन देवियों की सार्वजनीन पूजा प्रतिष्ठा का किया जाना भी सिद्ध होता हैं (कार. इन्म० इन्ड, ३, पृ० ४६, ७६) जैन परम्परा की इन्द्र कुमारिकाएँ अथवा सप्तमातृकाएँ ब्राह्मण परम्परा को तन्नाम देवियों से भिन्न हैं, यद्यपि उनकी उपासना का उद्देश्य और उनका प्रभाव प्रायः वही है ।
१-परिशिष्ट पर्व----अ०८ पृ. ३११-३१८
२-यह 'धर्मद्वार' निदान कथा जातक का महाद्वार और अर्थशस्त्र का ब्रह्मद्वार ही प्रतीत होता है। किन्तु हेमचन्द्र ने इस पद का यः अर्थ किया है कि नन्द ने धर्म की दुहाई देकर सुरक्षित चले जाने देने की याचना की।