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वृत्त
राजवार्त्तिक और तत्त्वार्थाभिगम सूत्र के भाष्य में वृत्त गणित पर निम्नाङ्गित नियम
उपलब्ध हैं:
( i ) परिधि = C = / 10d (ii) क्षेत्रफल A = cd
H
(iii) जीवा = C = 1/4h (d — b)
(iv) वृत्त खण्ड का चाप = & = 1/6h 2 + c
(v) h = i (d - 1 ds - c)
भास्कर
VD:
= 3.162
= 3.142
प्र
(h± + (h2+)/h
d = व्यास
(vi) व्यास = d =
" = 1 / 10 ऐसा मानने का जैन-शास्त्रों में काफी प्रचार है पर यह ग्रीस देशीय मान से प्रथम
दशमलव बिन्दु तक मिलता है ।
h
} तीन दशमलत्र विन्दु तक
Relative error =
.02 20 3.142 3142
जी काफी तुच्छ है ।
परिधि के लिए = 1 / 10d 2 = d/ 10 यह आधुनिक नियम के समान दी है । पर यह पता नहीं चलता कि इस निष्कर्ष पर जैन श्राचार्य कैसे पहुँच पाये । पट्खण्डागम में परिधि के लिए धोलिखित नियम मिलता है:
[ भाग १७
- चार की ऊँचाई
+ ३ व्या०
परिधि = व्या० X १६ + १६
*
११३
पर इस मान से और आधुनिक मान से काफी अन्तर पड़ता है। महावीराचार्य ने शायद इसी लिए इस नियम का व्यवहार अपने गणित-सार-संग्रह में नहीं किया है ।
क्षेत्रफल के लिए तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में जो नियम मिलता है उसका उल्लेख लीलावती में भी है । इस रूप को " के रूप में लाया जा सकता है पर jcd का ही व्यवहार धर्मग्रन्थों में मिलता है जबकि महावीराचार्य ने 100 का व्यवहार किया है ।
क्षेत्रफल के लिए त्रिलोक-सार (गाथा- ७६२) में एक और नियम मिलता है । वह नियम यह है :
A=i (c + b)h.
यह जीवा और चाप की ऊँचाई के शब्दों में है । उसी सूत्र में यह कहा गया है कि यही सूक्ष्म मान है और ted यह स्थूल मान है पर इस निष्कर्ष पर पहुँचने का क्या मार्ग है। यह वहाँ नहीं लिखा है ।