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(iii) h=Vd' +ad (त्रिलोक सार)
पहला नियम तत्वार्थाधिगम सूत्र और त्रिलोकसार तथा दूसरा नियम उमास्वाति के क्षेत्र - समास तथा त्रिलोकसार में मिलता है । दूसरे नियम के विषय में कुछ नहीं कहना है, पर पहला नियम श्राजकल का सा है । अन्तर केवल इतना ही है कि करणी के पहले (+) चिन्ह भी होना चाहिए था | जैन श्राचार्यों ने, जैनेतर ग्राचायों ने भी, यह नहीं सवाल किया कि कोई जीवा वृत्त को दो हिस्से में बाँटती है । पहला नियम लीलावती में भी मिलता है। उपर्युक्त नियम महावीराचार्य के गणितसार संग्रह में भी मिलते हैं जो केवल गणित की पुस्तक है । स्थूल मान के लिए तो महावीराचार्य ने ६ के स्थान पर ५ का व्यवहार किया है ।
व्यास के सम्बद्ध में भी दो नियम मिलते हैं ।
c2 1 + 4h " 4h
(i) d =
(ii) d = ;
(i)
(ii)
C 1
2
2h
पहला नियय तो आजकल भी सही माना जाता है, पर दूसरा नियम ठीक नहीं उतरता । व्यासार्ध के बारे में एक समीकरण मिलता है, वह यह है ।
त्रिलोकसार ( गाथा १८ ) मे
व्यासार्थ = r
1 उस वृत्त का व्यासार्द्ध है जो S भुजीय वर्ग के बराबर है। अतएव = (15) 2
Sector की चर्चा कहीं नहीं मिलती ।
Segment को धनु कहा गया है और उसके क्षेत्रफल के बारे में महावीराचार्य का नियम है:
क्षेत्रफल = Cx
×110
ܐ
- h
C1 6
+ C9
(तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, और त्रिलोकपार )
)
यह नियम ठीक नहीं है। मालूम पड़ता है कि अर्धवृत के क्षेत्रफल के लिए ऐसा नियम लिखकर उसके सादृश्य से धनुष के क्षेत्रफल का ऐसा नियम महावीराचार्य ने लिखा है ।
+Cgxb,
इसी सिलसिले में महावीराचार्य के ग्रन्थ में कितने अन्य क्षेत्रों का भी गणित मिलता है, जैसे तीन बराबर वृत्तों के, जो आपस में एक दूसरे को स्पर्श करते हैं उनके बीच का क्षेत्र । सय केन्द्रीय वृत्तों से घिरे क्षेत्र का भी गणित महावीराचार्य के संग्रह में है । इस विषय में महावीराचार्य ने दो नियम लिखे हैं जिनके सूत्र ये हैं:
भास्कर
9
16
S
xhV10
[ भाग १७
C1 बाह्यवृत्त परिधि
अन्तः वृत्त परिधि
b चौड़ाई