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किरण १]
चन्द्रगुप्त और चाणक्य
आना-कानी किये तत्काल विवाह की तैयारियाँ शुरु कर दी। किन्तु पर्वन के दुर्भाग्य से वह कुमारी एक विषकन्या थी' । चाणक्य इस बात को भली भाँति जानता था और इस विवाह का क्या परिणाम होगा यह पूर्णतया जानते हुए ही उसने इस सम्बन्ध के लिये सहर्ष स्वीकृति दी थी। विवाह संस्कार के अवसर पर अग्निप्रदक्षिणा देते समय पर्वत ने जो उस विषकन्या का हाथ पकड़ा तो गरमी के कारण उसके शरीर से निकले स्वेद का सम्पर्क होते ही पर्वत पर विष ने प्रभाव किया, और दून वेग से उसके शरीर में फैलने लगा।
पन्न मृत्यु के मुख में पड़े पर्वत की करुण पुकार सुनकर चन्द्रगुप्त उसकी सहायता को दौड़ा और उसका उप वार करना चाहा। चाणक्य ने भृकुटि निक्षेप द्वारा उसे ऐसा करने से रोक दिया और औषधोपचार के अभाव में पर्वत ने शीघ्र ही प्राण त्याग दिये।
चाणक्य ने इस प्रकार नन्द और पर्वत दोनों के राज्यों को एक साथ निर्वाध प्राप्त कर चन्द्रगुप्त को सिंहासनारूढ़ किया। यह घटना भगवान महावीर के निर्वाण के १५५ वर्षे बाद घटी' । लगभग २५ वर्ष चन्द्रगुप्त ने राज्य किया और चाणक्य ने उसका मन्त्रित तदुपरान्त चन्द्रगुप्त तो पुत्र विन्दुसार को राज्य सौंप अपने धर्मगुरु भद्रबाहु का अनुसरण करत दक्षिण को चले गये और जैन मुनि हो गये, और चाणक्य कुछ काल तक विन्दुसार का मन्त्रित करते रहे. तत्पश्चात् वे भी जैन मुनि हो गये। जैन साहित्य में एक बड़े भारी तपस्वी मुनि के रूप में उनका उल्लेख हुया है। अति प्राचीन दि० जैन ग्रंथ ____- द्राक्षम नाटक' के अनुसार वृद्ध गजा सय सिद्धि नन्द की हत्या के उपरान्त उसके मंत्री राक्षम ने एक अतीव सुन्दरी विचकन्या को नुगग नामक राजमंदिर में इस उद्देश्य से भेना था कि चन्द्रगुत उन के रूप पर मुग्ध होकर उसके मंनर्ग से मृत्यु को प्राप्त होगा। किन्तु उनकी इस चाल का नाणक्य को पता चल गया और उसने कौशल से उस कन्या को विश्वामया पर्वतक के पास भेना दवा यार उसके संग मे तक की मृत्यु हो गई। एक युनानी अन्य के अनुसार एक भारतीय रानी ने सिकन्दर महान से बदला लेने के लिये उसके पास भेट स्वरूप एक विष कन्या में तो थी, किन्तु उसके गुरु अरग्नु के कौशल से यह प्रयत्न व्यर्थ हो गया था। श्रा गर्य गुचन ने (सु. सं.-कल्पस्थान, १, ३) भी या प्रतिपादन किया है कि विप कन्या का शरीर इतना विपात का है कि उनके साथ संभोग करने वाले व्यक्ति का प्राणान्त हो जाता है।
२.हे म चन्द्र के परिशिष्ट पर्व, भद्रेश्वर की कहावली तथा अन्य जैन श्राधारा से चन्द्रगुत के राज्यारोहण की तिथि मदावीर निवारण संवत् १५५ ही सिद्ध होती है। कुछ जैन ग्रन्थों में उल्लिखित उजवनी नरेश पालक के राज्यकाल के ६० वपों को इन १५५ वषों में भ्रम से जोड़ कर कई अाधुनिक विद्वान जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त का समय महावीर निवाण के २१५ वर्ष पश्चात प्रतिपादन कर देते हैं वास्तव में इस तिथि को निश्चित करने में १८-१६ वीं शताब्दी के यूरोपीय प्राच्यविदा ने एक भारी मैलिक भून की थी जो युनानी लेखकों के सैन्ड्रोकोटस का मौर्य चन्द्रगुप्स से समीकरण करने के कारण हुई थी। इस भूल का निराकरण कई विद्वानों ने बची २ में करने की चटा की किन्तु अधिकांश बहुमत इसके पक्ष में रहने से इसकी पुष्टि होती