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जैन ग्रन्थों में क्षेत्रमिति – १
[ ले० – श्रीयुत् प्रो० राजेश्वरी दत्त मिश्र, एम० ए०, शास्त्री ]
क्षेत्रमिति गणित शास्त्र का सबसे उपयोगी अंग है । इसे पाटीय ज्यामिति कह सकते हैं । जैन-ग्रन्थों में भी इस अंग पर जैन दर्शन के सिलसिले में काफी चर्चा मिलती है । पट्खण्डागम में इस पर क्षेत्रानुगम नाम से एक बड़ा भाग ही उपलब्ध है । केवल गणित के ग्रन्थ भी जैन आचार्यो के उपलब्ध हैं, जिसमें क्षेत्रमिति पर काफी लिखा है, जैसे महावीराचार्य का गणित-सारसंग्रह और उमास्वाति का क्षेत्र समास । इन ग्रन्थों के पढ़ने से भारतीय गणित की परम्परा पर काफी प्रकाश पड़ता है किन तक भारतीय ज्यामिति ग्रीस देशीय रही, और कितनी
स्वतन्त्र इनकी चर्चा संक्षेपतः इस लेख में की जायगी ।
पहले हम त्रिभुज पर विचार करें । याधुनिक मत से ग्रीस देशीय मतानुसार त्रिभुज छः प्रकार के होते हैं, तीन भुना के दृष्टि कोण से और तीन कोण के लिहाज से । महावीराचार्य के गणितसार संग्रह में त्रिभुज की तीन ही प्रकार की चर्चा मिलती है। पर भुता के लिहाज से, कांग के हिसाब से नहीं। हाँ, समकोण त्रिभुज का गणित अवश्य मिलता है । यह बात अन्यान्य भारतीय श्राचार्यो के किए भी ठीक है । अस्तु !
त्रिभुज के स्थूल क्षेत्रफल के लिए महावीराचार्य ने जो नियम लिखे हैं, वे विचित्र हैं । नियम इस प्रकार हैं:
-
'त्रित चतुर्भुजवाप्रतिबाहुसमा सदलहतं गणितम्' इसको व्याख्या यों की जाती है:यदि ABC एक त्रिभुज है जिसका आधार BC है तां, AB, और AC भुजाएँ बाहु-प्रतिबाहु a b+c कही जायेंगी और क्षेत्रफल = X मान काफी भ्रामक है, क्योंकि 2
पर
यह
b+c> altitude.
सूक्ष्ममान के लिए निम्नलिखित नियम मिलते हैं:
A - VS ( S - a ) (S - b) (s - c)
Â.
XP यहाँ p त्रिभुज की ऊँचाई है ।
2
इन दोनों नियमों में ग्रीस देशीय नियमों से कोई अन्तर नहीं हैं ।