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[ भाग १८
दक्षता से उस युग में अन्य किसी ने नहीं । दिग्विमूढ़ जैन समाज को दिशा ज्ञान और मार्ग प्रदर्शन के लिये आपने श्रम किया । जैन सिद्धन्न भवन की स्थापना के समय आपसे अनेक वार मेरा विचार-विमर्श हुआ । आप एक ऐसी केन्द्रीय संस्था स्थापित करना चाहते थे, जो सभी दृष्टियों से जैन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करे | साहित्य और कला के संचयन के साथ जिसे यथार्थतः आगम मन्दिर कहा जा सके। जिसमें जैनागम को दीवालों पर अंकित कराया गया हो। आपकी यह इच्छा समग्ररूप से पूर्ण नहीं हो सकी; फिर भी आपने जैन संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन के लिये बहुत कुछ किया है । आप आदर्श गृहस्थ थे, श्रावक के व्रतों का सम्यकूरूप से पालन करते थे तथा संयम का पालन करते हुए समाज कल्याण के लिये चिन्तित रहते थे । आपका प्रत्येक कार्य 'लोकहिताय' होता था। आप काम करने को धुनि मैं सदारत रहते थे 1 नाम से दूर रहकर समाज की सच्ची सेवा आपने की है। आप लेखक, वक्ता ओर समाज निर्माता थे। मानवता का यह कीर्त्ति स्तम्भ युग-युग तक समाज को प्रेरणा देता रहेगा । मैं अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूं ।
भास्कर
जवाहरलाल शास्त्री, जयपुर ।
सरस्वती पुत्र -
श्री देवकुमारजी की घँधली -स्मृति आज चल चित्र की तरह मानस पटल पर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी है । 'जैन -भास्कर' के संचालकों ने भास्कर का देवकुमाराङ्क निकालकर प्रशंसनीय एवं मौलिक कार्य किया है ।
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जन-धारणा है कि लक्ष्मी और सरस्वती में मेल नहीं खाता। उनके भिन्नभिन्न वाहन हैं। परन्तु श्री देवकुमारजी इस परंपरागत सिद्धान्त के अपवाद स्वरूप थे। आप धनी और विद्याव्यसनी दोनों थे । आपकी अटूट धार्मिकता, कट्टर सांप्रदायिकता नहीं, सत्य अहिंसा एवं दया दान के रूप में, मानव में ही नहीं प्राणिमात्र में भी व्याप्त थी। आपके जीवन काल में देश की हजारों संस्थाएँ आपके पैसों से जीवित थीं एवं अनेकों वृद्ध विधवाएँ हिन्दू-मुसलमान तथा परिगणित जाति की परवरिश पाती थीं ।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम भाग और बीसवीं के आरंभ में, श्राग का नत्र साहित्य निर्माण बाबू साहब की सहायता, प्ररेणा तथा उत्साह से हुआ है। आपका जैनसिद्धान्त - भवन, विश्व विख्यात् ओरियंटल लाइब्रेरी के रूप में है । आप भारा