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किरण १]
चन्द्रगुप्त और चाणक्य
राज्यवंश के व्यक्तियों के लिये नियत था' । महागन नन्द ने अपने पुत्र राजकुमार सिद्धपुत्र के साथ भवन में प्रवेश किया। उक्त आसन पर चाणक्य को बैठा देवकर राजकुमार ने परिचारिका से उसे उसपर से उठाने और दूसग प्रासन देने के लिये कहा। दूसरा भासन दिये जाने पर भी चाक्य ने पहिले असा का त्याग नहीं किया और उस दूसरे पासन पर अपना लोटा रख दिया। एक एक करके तीन और प्रासन उसे दिये गये और उनपर भी वह अपनी एक एक वस्तु, दण्ड, माला, यज्ञोपवीत रखकर उ हे हस्तगत करता गया। यह देखकर कि नवागन्तुक ब्राह्मगा इतना अभिमानी है कि वह राज्यासन को तो त्यागता ही नहीं वरन् उसे दिये गये अन्य प्रासों पर भी अपना अधिकार करता चला जाता है, परिचारिका का धैर्य जाता रहा; चागाक्य के इस उदंड व्यवहार से के धित हो उसने उमे लान मारकर प्रासन पर से उठा दिया। इसपर चाणक्य का क्रोध भड़क उठा और भरी सभा में बड़े रोष पूर्वक उसने निम्नोन शब्दों में प्रतिज्ञा की-"निस प्रकार उपायु का पचंड वेग अनेक शाखा समूह सहित महान वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार हे नन्द मैं तेरा तेरे कोष, भृत्य, पुत्र, मित्रादि सहित समून नाश करूंगा।
अन्तिम नन्द नरेश का यह दुर्भाग्य था कि चाणक्य इतनी दूर से उस महान केन्द्र पाटलिपुत्र में विद्वानों से शास्त्रार्थ करने के लिये आ पहुंचा, और उपरोक्त नियम का लाभ उठाकर संघब्राह्मण को पदच्युत करने और उसका स्थान स्वयं प्राप्त करने में सफल हुअा। किन्तु राजा इस नवीन अध्यन की अत्यन्त कुरूपता के कारण उसको उपस्थिति सहन नहीं कर सका और उसने उसे प्रायः बलपूर्वक ही दानशाला से बाहर निकलवा दिया। फल स्वरूप वह कूटनीति के उस महान प्राचार्य कौटिल्य का कोप भाजन हुआ और सबंश नाश को प्राप्त हुआ-(मोग्ग-महा०, गा० ७२.८३; वंसत्थ०-पृ० १२०)
१-सुख बोय, और श्राव० चूर्णि ।
२-सुखबोध श्रादि के अनुसार अन्तिम नन्दनरेश का पुत्र सिद्धपुत्त (सिद्धपुत्र) था, हेमचन्द्र ने उसका उल्लेख केवल 'नन्दपुत्र' के रूप में किया है, कोई नाम नहीं दिया (परि०८, २१८। हरिषेण ने बृहत्कथा कोष में उसका नाम हिरण्य गुप्त अथवा हरिगुप्त दिया है और उसे युवराज लिखा है। किन्तु बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अन्तिम नन्द के इस युवराज का नाम पर्वत था (वंसत्य-पृ० १२१; में.ग्ग० महा; गा०८० सी० डी० चटर्जी-इडियन कल्चर, १, पृ० २२०, २२३) ऐसा प्रतीत होता है कि नवम नन्द के एक ही पुत्र था क्योंकि सब ही श्राधार केवल एक ही पुत्र का संकेत करते हैं, यद्यपि उसके नाम में मतभेद प्रदर्शित करते हैं।
-कीपेन् भृत्यैश्च निबद्धमूलम्, पुत्रैश्च मित्रैश्न निवृद्धशाखम् । उपात्य नन्दम् परिवर्तयामि, महाद्रुमम् वायुरिवोगवेगाः ॥
(श्राव० चू० पृ० ५६३, सुख० ३१) चाणक्य के इस प्रसिद्ध शाप को विभिन्न लेखकों ने भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त किया है। जैन साहित्य में इसका सर्व प्रथम उल्लेख आवश्यक चूर्णि' में मिलता है, तदनन्तर सुखबोध, परि० पर्व