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श्री
बाबू देवकुमार जी का वसीयतनामा
[ अपनी मृत्यु के पूर्व ४ जून सन १६०८ बाबू देवकुमार जी ने एक वसीयतनामा २६०० रुपये के स्टाम्प पर लिखा है। जो उर्दू भाषा में है, यहाँ पर उसके कुछ उपयोगी अंश अनूदित कर दिये जाते हैं। इससे बाबू साहब के उदार हृदय की विशाल झांकी तथा उनकी आन्तरिक अभिलाषाओं का साक्षात्कार पाठक कर सकेंगे ]
मैं बाबू देवकुमार पुत्र स्वर्गीय बाबू चन्द्रकुमार माइलला महाजन टोली न० १ श्रारा नगर निवासी हूँ | मेरा व्यवसाय जमीन्दारी र जाति का अग्रवाल जैन हूँ । चूँकि मैं सदा स्वस्थ रहा करता हूँ और इस समय अत्यन्त रुग्ण हूँ तथा जीवन का कुछ भी ठिकाना नहीं श्रतः मेरी यह इच्छा है कि मैं ऐसा प्रबन्ध करूँ, जो मेरी मृत्यु के पश्चात् भी सदा के लिये स्थिर रहे और मेरा तथा मेरे वंश का नाम अमर रहे, मेरा परलोक भी बने; इसलिये मैं स्वेच्छा और निजी प्रेरणा से विचार विनिमय पूर्वक, बिना किसी दबाव और अन्य की प्रेरणा के अपनी पूर्ण चैतन्यता में नीचे लिखे अनुसार प्रबन्ध करता हूँ; जो मेरी मृत्यु के बाद काम में लाया जाय ।
मिस्टर डिउडरउल वो शी० शी० राविन्सन से २७ अगस्त सन् १६०५ ई० को खरीदी हुई श्रारा नगर की १७ धूर जमीन, जिसकी सीमा निम्न प्रकार है और जो मेरे अस्तबल के काम में लाई जाती है; मकान सहित इस अस्तबल को श्री चन्द्रप्रभु जी के मन्दिर को अपनी इच्छा पूर्वक प्रदान करता हूँ ।
सीमा - पूर्व में बाग बलदेव दास, पच्छिम नाली और उसके बाद सड़क सरकारी, उत्तर बरामदा मन्दिर; दक्खिन रामगोविन्द कुर्मी |
श्री महावीरचन्द सुपुत्र स्वर्गीय श्रीकृष्णचन्द्र श्राग नगर निवासी, जो कि मेरे फुफेरे भाई हैं। और जिनके प्रति मेरा कुछ कर्त्तव्य है, मैं श्रारा नगर में महाजन टोलों का एक किता मकान, जिसकी सीमा निम्न है; इन्हें प्रदान करता हूँ और इसकी मरम्मत के लिये १५००) रुपये भी देता हूँ। यह मकान उनके वंशज का होगा ।
सीमा - पूर्व में गली आने-जाने की, पच्छिम मकान छेदी मियां, उत्तर में गली और दक्खिन में गली लक्ष्मी प्रसाद अग्रवाल के मकान में जाने की ।
मैंने श्री पार्श्वनाथ जी को एक मन्दिर मु० गढ़वा परगना कराली, थाना पच्छिमसरीरा, तहसील मंझनपुर, जिला इलाहाबाद में निर्माण कराया था, जिसमें कुछ काम अभी बाकी है और पाश्वनाथ जी की प्रतिष्ठा भी अभी तक नहीं हुई है । यदि इलाहाबाद की दि० जैन पंचायत इस मन्दिर के प्रबन्ध करने का भार अपने ऊपर ले ले और प्रतिष्ठा का प्रबन्ध करले तो मेरे उत्तराधिकारियों और प्रबन्धकों का यह कर्त्तव्य होगा कि वे ५०००) रुपये पंचों को दे दें और यदि पंच तैयार न हों तो हमारे उत्तराधिकारी और प्रबन्धक इन्हीं रुपयों से प्रतिष्ठा और मन्दिर का प्रबन्ध करें ।