________________
किरण १]
श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचाधारा
५५
में भ्रान्त धारणा घर कर गयी है उसे दूर कर सकते हैं । अन्त में गुरुजी से आपने कहा कि मेरे साथ में कुछ छात्र आये हुए हैं । इनकी आप परीक्षा लें। गुरुजी प्रत्येक छात्र से पाठ्य विषयक मार्मिक बातें पूछकर उनके संतोषजनक उत्तर से तो आप अत्यधिक प्रभावित हुए ही । अन्त में सब छात्रों को 'राजते महती सभा" यह समस्या पूर्ति करने को दी । सबों ने बहुत शीघ्र भावपूर्ण समस्या पूर्ति करके दे दी । किन्तु एक श्याम वर्ण प्रज्ञाचक्षुजी ने सब पूर्तियों से विशिष्ट वीररसाप्लुत अतएव श्रजोगुणगर्भित अपनी सुन्दर पूर्ति सिंहनाद स्वर में कह सुनायी । गुरुजी ने सूरिजी से कहा कि यह प्रज्ञाचक्षुजा कालान्तर में बड़े अपूर्व विद्वान् हांगे । यह दिव्य दृश्य देखकर उस समय बा० देवकुमारजी के रोम-रोम माना हर्ष - गद्गद् भक्तिविह्नल एवं तन्मय से हो रहे थे। ज्ञात होता था कि आपकी धर्मप्रवणता तथा विद्यारसिकता रूपी उत्ताल तरंगमय तटिनी- पति अपनी मर्यादा का अत्र उल्लंघन करना ही चाहता है । अन्त में आपने प्रचुर मात्रा में बहुत मूल्यवान् द्रव्यादि से सभी छात्रों और अध्यापक महोदय को पुरस्कृत कर अपनी अनुत्तर उदारता एवं पुनीत आतिथेयता का परिचय दिया । अन्ततोगत्वा आपके भक्तिभरित तथा सात्विक आतिथ्य सत्कार और नैष्ठिकता से परम प्रसन्न एवं प्रभावित होकर सूरिजी ने कहा ही कि बाबू देवकुमारजी बड़े ही निश्छल एवं दूरदर्शी जैन धर्मात्मा हैं । यदि अन्यान्य धनो-माना जंनी भी आप ही के समान धर्म और विद्या के प्रचार से समाजोत्थान की चेष्टा करें ता जैनधम का महत्व व्यापकता को धारण कर ले और "जैन" शब्द के पाछे जो श्वेताम्बर और दिगम्बर ये मतभेद सूचक शब्द जुड़े हुए हैं- कालान्तर में निरथक से जान पड़ने लगें ।
अथवा सनातन
दक्षिण प्रान्त हिन्दू और जैन धर्म का एक दुर्लङ्घ्य दुर्ग-सा है । भारतीय संस्कृति का एक जीता-जागता मूत्ते प्रताक उस कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगा। मेरे संस्मरणीय बाबू साहब अपने प्रभविष्णु भ्राता के निधनजन्य आदासीन्य से उद्भ्रान्त से ही दक्षिणताथ यात्रा का धुन में लग गये और अविलम्ब स्वजन परिजन दल-बल के साथ सपरिवार यात्रा का निकल ही ता पड़े। साथ ही बहाँ स्वामी नमिसागरजी वर्णी का सम्मिलन साने में सुगन्ध का काम कर गया । वहाँ आपका दर्शनीय वस्तुओं में प्राथमिकता था शास्त्र भाण्डार को हो । धर्म की ज्ञानगरिमा का अनन्य साधन शास्त्रों को दीमक, कीड़ों-मकोड़ों का खाद्य बनते देखकर आपके रोंगटे खड़े हो गये । दक्षिण के शास्त्र - भाण्डार के अधिपति शास्त्रों का दर्शन कराना शास्त्रापमान समझते थे । किन्तु बहुत अनुनय-विनय करने तथा बजी के सहयोग से शास्त्रों के दर्शन करने में आपका अधिक अड़चन नहीं पड़ी ।