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किरण १]
कतिपय मधुर संस्मरण
यात्री ने प्रार्थना की कि १०) रुपये से कम में मेरा काम नहीं चल सकता है अतः मैं ५) रुपये नहीं लूँगा। पहले तो उन्होंने उस यात्री को समझाया और कहा कि बिल जितने रुपये का पास किया गया है, उससे अधिक नहीं मिल सकते हैं। तुम एक बार इसे मालिक के पास फिर ले जाओ, यदि वह बढ़ा देंगे तो १०) रुपये दे दिये जायँगे। बेचारे भोले-भाले यात्री को विश्वास नहीं हुआ और वहीं १०) रुपये पाने के लिये गिड़गिड़ाने लगा। वह जितना रोता. गिड़गिड़ाता था, खजांची महोदय उसे उतना ही डाँटते थे। इससे कुछ हल्ला भी नीचे से सुनाई दिया। हल्ला सुनकर बाबूजी नीचे पाये और यात्री की करुण कथा स्वयं बुलाकर सुनी ।
उनका कोमल हृदय पिवल गया और यात्री से क्षमा माँगते हुए कहने लगे-भाई, आपको बड़ा कष्ट हुश्रा। मेरे कारण श्रापको कष्ट उठाना पड़ा, इसके लिये मुझे दुःख है। प्राप जितनी दूर जाना चाहते हैं, १०) रुपये में श्रापका काम नहीं चल सकेगा। इतने रुपये तो केवल टिकट खरीदने में लग जायेंगे। खाने-पीने तथा अन्य खर्च के लिये १०) रुपये और चाहिये; तभी आप पहुँच सकेंगे। श्राप जैनी हैं, तीर्थयात्रा के लिये आये हैं अतः आप हमारे लिये पूज्य हैं। श्री सम्मेदशिखर की यात्रा करने से प्रात्मा पवित्र हो जाती है, पाप-वासनाएँ दूर भाग जाती हैं। अतः श्रापका सम्मान करना हमारा परम कर्त्तव्य है। पहले श्राप भोजन कीजिये, रसोई तैयार है। इसके पश्चात् श्रापका सारा प्रबन्ध हो जायगा। हमारा यह अहोभाग्य है कि आपने सेवा के लिये अवसर दिया। धर्मात्मा व्यक्तियों के दर्शन पुण्योदय से ही होते हैं।
बेचारा यात्री बाबू जी की बातों को सुनकर रोने लगा और उनके पैर पकड़ लिये तथा कहने लगा कि आप वस्तुतः देव कुमार हैं। बाबूजी ने यात्री को दो दिन तक अपनी कोठी में रखा, पीछे मार्ग व्यय देकर उसे रवाना किया।
बाबूजी ने अपने समय में किसी भी व्यक्ति को अपने यहाँ से निराश नहीं जाने दिया। जो भी उनके पास आता था, वह उसके साथ सौजन्यता का व्यवहार करते थे। दानी होने की अहंमन्यता उनमें नहीं थी। न्यवहार उनका इतना मधुर था, कि सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति उनसे सर्वदा प्रसन्न रहे। उनके देव तुल्य व्यवहार ने उन्हें लोकप्रिय बनाया था।
x सन् १९०७ में हम लोग सपरिवार दक्षिण के तीर्थों की यात्रा के लिये रवाना हुए। रास्ते में बाबूजी के स्वभाव और गुणों का प्रकाश मुझे अत्यधिक मिला। इतने वर्षों के बाद भी
आज उस समय की स्मृतियाँ हृदय-कपाटों को खोलने में सक्षम हैं। बम्बई से रवाना होकर जब हमलोग कुछ आगे चले तो एक तेरह-चौदह वर्ष का बालक भिक्षा मांगने के लिये हमारे डिब्बे में पाया बाबूजी ने बड़ी प्रात्मीयता के साथ उससे बातें की और उसका कुल पता ठिकाना पूछा। बालक कहने लगा कि मैं बम्बई प्रान्त के एक छोटे कस्बे का रहनेवाला हूँ। मेरे माता
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