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कुमार का सफल स्वप्न
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व्यस्त उनका हृदय मानों ध्यान में मन, प्रायः गयी रजनी बीत,
अझ-वेला में हुआ तब एक स्वप्न पुनीत ।
"एक था प्रासाद अतिशयउच, उसमें ये बने नवनव प्रकोष्ठ सुभव्य एवं बत्तियों से जगमगाये, किन्तु थे वे रिक्त,
धर्म-मानव था पड़ा, ये नयन जल से सिक्त ।
रो उठा वह देख इनको, कहा- दो अवलम्ब मुझको, बाह्य मेरा रूप सुन्दर, किन्तु अन्तथून्य होता जा रहा हूँ हाय !
शान-शास्त्रों के बिना हूँ हो रहा निरुपाय ।
हो रहे थे कण्ठ-गत कुछशन्द उनके सान्त्वनामय, दुल गयी तब नींद, इससेजागने पर की प्रतिज्ञा-'धर्म हे साकार!
शान के हित मैं करूँगा सतत शास्त्रोदार ।
जागते ही चकित होकरएक नूतन योजना निर्माणकरके मापने निजमन्त्रिवर के सामने तब रख दिया सानन्द,
था उदय साहाद एवं ना परमानन्द ।
योजना वह बन गयीअंकुरित एवं पल्लवित