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[ भाग १८
यह श्रागन्तुक सज्जन जब कोठी में आये तो बाबूजी ने इनका स्वागत-सत्कार किया, दूसरे दिन जैन तीर्थों की व्यवस्था और कुप्रबन्ध को लेकर घण्टों चर्चा हुई। बाबूजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि हम अपनी इस पर्याय में शास्त्र - संरक्षण और तीर्थ- संरक्षण श्रवश्य करेंगे। जैसे परिवार के व्यक्तियों का मेरी सम्पत्ति में अधिकार है, उसी प्रकार समाज का भी । समाज और परिवार को मैं भिन्न नहीं मानता हूँ । यदि हमारे श्रात्मोत्थान के प्रतीकों का अभाव हो जाय तो फिर हमारा जीवित रहना किस काम का है ? राजगृह और पावापुर तीर्थों की व्यवस्था और संरक्षण का भार तत्काल अपने ऊपर ले लिया और की रक्षा में संलग्न हो गये ।
श्री सम्मेद शिखर,
उसी समय से जैन संस्कृति
भार
बाबूजी समाज का परिष्कार करना चाहते थे, उनका श्रमशील कलेवर समाज में क्रान्ति और सुधार करने के लिये आतुर था। लक्ष्मी के कृपापात्र होकर भी सरस्वती के भक्त थे तथा परिश्रम के ऊपर उनका अटल विश्वास था । उन्होंने समाज सुधार के लिये महासभा के मुखपत्र जैन गजट द्वारा आन्दोलन किया तथा बाल-विवाह, वृद्ध - विवाह को समाज से दूर भगाने में सफलता भी प्राप्त की । वैयक्तिक चरित्र को उज्वल बनाने के लिये बाबूजी ने बहुत जोर दिया । वह सर्वदा कहा करते थे कि आदर्श व्यक्ति ही आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं। उनके हृदय में समाज की वेदना का निर्मल स्रोता प्रवाहित होता था। इसी कारण समाज सुधार के लिये इतने अधिक व्यय थे कि उन्हें अहर्निश जैन समाज की कमियाँ दिखलायी पड़ती थीं ।
बाबूजी का सम्पर्क मेरे जीवन के उत्थान में बड़ा भारी सहकारी है। उनकी साधुता की छाप मेरे ऊपर अमिट है । उनके अलौकिक और पावन जीवन का दिव्य प्रकाश श्राज भी मेरी अनेक समस्यानों का समाधान कर पथ प्रदर्शन कर रहा है । बाबूजी अपने कर्त्तव्य में कितने सजग थे तथा जीवन की यथार्थता का अनुभव किस प्रकार करते थे, यह निम्न संस्मरण से स्पष्ट हो जायगा ।
सन् १६०५ के चैत्रमास में, जिस समय वसन्त अपनी प्रौढ़ अवस्था पर था । श्राम्र मंजरियाँ
रंगीन भौंरे गन्ध-विभोर हो मधुपान तरुण कलियों से लदे थे । मानव
अपनी सुरभि द्वारा दिदिगन्त को सुरभित कर रही थीं। का पुनीत पर्व मना रहें थे । वन वृक्ष पूरी तरह नवीन हृदय विश्वमाधुरी का पान कर अपनी सुध-बुध खो रहा था। जड़-चेतन सभी वासन्ती समीर से उदबुद्ध हो अलसाई आँखें खोलने में संलग्न थे । पुष्प कलिकाएँ अलसित ब्राँखें खोल वीरुभ कुञ्जों को अपना सुरभित दान दे रही थीं। ऐसे सुन्दर सुहावने समय में बाबूजी श्रात्मचिन्तन के लिये अपने बगीचे के बँगले में गये । परिवार के अन्य सदस्य भी साथ में थे, किन्तु बाबूजी सर्वदा प्रकृति से भ्रात्मोत्थान की प्रेरणा ही प्राप्त करते थे, उन्हें इसी कारण पवित्र और सुम्दर