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किरण १]
श्री बा देवकुमार : जीवन और विचारधारा
"नाटक में उसी एक्टर (खिलाडो) की प्रशंसा होती है जो कि उसी भाव में भीगकर मानो वही हो जाता है।"
क्योंकि भारतीय दृष्टि से भावों का साधारणीकरण ही नाटक की सफलता है और
"हजारों मनुष्यों के चित्तों में अपने चित्त का भाव खींच देना उसी समय संभव है जबकि उस रूप हो जाय।"
पारसी नाटकों के प्रति घृणा का यही कारण है
"साहित्य की उन्नति का अंग नाटक भी है किन्तु अाजकल भारतवर्ष में नाटकों को श्रद्धा पारसी नाटकों ने उठा दी है।"
उत्कृष्ट नाटक देश की उन्नति में कितने सहायक होते हैं
"यदि श्रीयुत बाबू हरिश्चन्द्र जी भारतेन्दु के नाटक खेले जायें तो आज भी भारतवर्ष इंगलैण्ड के समान उन्नति शिखरावलंबी हो जाय ।"
परन्तु ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे' सिद्धान्त निरूपण सरल है अपने जीवन में उन्हें कार्यरूप में परिणत करना किसी बिरले महापुरुष के लिए ही संभव है। कुमारजी ऐसे ही दुर्लभ म्यक्तियों में अपना स्थान रखते थे। उन्होंने जो कुछ कहा उससे अधिक स्वयं कर दिखलाया ।
केवल बाईस वर्ष की आयु में एकमात्र जीवन-साथी प्रिय अनुज बा० धर्मकुमारजी को इनसे छीनकर मानो विधाता ने इन्हें बलात् कर्मयोग की कठिन परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। अभी कुछ मास पहले ही विवाहित, उनकी चतुर्दशवर्षीय विधवा पत्नी श्री पं० चन्दाबाई का भविष्य इनकी सफलता का प्रमाणपत्र था। इन्होंने इस कठिन कार्य के सम्पादन में जिस धैर्य और व्यवहारकुशलता का परिचय दिया, उसके फलस्वरूप आज 'जैनबाला-विभाम' उस विदुषी पण्डिता के संरक्षण में नारी-जागरण की पताका फहराता हुआ देशभर में इनके नारी-शिक्षा के सन्देश को प्रवाहित कर रहा है। नारी-शिक्षा को ही ये देशोन्नति का आधार-स्तम्भ मानते रहे और उसी कार्य से इनकी सामाजिक सेवा का श्रीगणेश भी हुश्रा। पारा में कन्या पाठशाला की स्थापना कर, स्त्री लेखिकाओं को पुरस्कार इत्यादि के द्वारा जैन-गजट में लेख देने के लिए प्रोत्साहित कर, जैन-गजट की प्रतियाँ शिक्षित स्त्रियों को निःशुल्क बाँटकर, और उनकी धार्मिक शिक्षा का यथोचित प्रबध कर इन्होंने इस कार्य में
आशातीत उन्नति की। कुमारजी के परिश्रम का ही फल है कि आज आरा के जैन समाज में एक भी निरक्षर महिला ढूँढ़ने से भी नहीं मिल सकती और 'विश्राम' से शिक्षा प्राप्त नातिकाएँ किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय के स्नातकों से कम योग्यता नहीं रखती। ___ समाज के बालकों को अपनी संस्कृति और सभ्यता का प्रज्वलित पालोकस्तंभ के रूप में देखने के लिए भी उन्होंने कम प्रयत्न नहीं किया। अखिल भारतीय जैन महासभा के एक