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काकू देवकुमार जी: एक संस्मरण [ले० - श्रीयुत् पं० हरनाथ द्विवेदी, काव्य-पुराण तीर्थ ।
संस्मरण दो प्रकार का होता है निर्जीव तथा सजीव । जिसके संस्मरण से सार्वजनीन कार्यों के लिए कुछ भी प्रोत्साहन नहीं मिले वही निर्जीव संस्मरण है अन्यथा सजीव । मानवरूप में अवतीर्ण बाबू देवकुमारजी ने औदार्यपूर्ण विश्वजनीन कार्यों से अपने को अक्षरशः-अमर सिद्ध कर दिया है। - भूतकाल की पूर्णता की पराकाष्ठा को पार किये हुई अर्थात् आज से लगभग ५० वर्ष की बातें मैं लिख रहा हूं; क्योंकि उन दिनों १९-२० साल का नवयुवक था और अब तो मेरा अगला डग ७० की सीढ़ी पर जमा हुआ है। वस्तुतः ऐसे सजीव संस्मरण के लिए सजीव, बहुमुखी एवं स्फूर्तिप्रद लेखनी की ही आवश्यकता होती है। किन्तु उदारहृदय, निष्कलंकचरित्र, छात्रकल्पवृक्ष, नैष्ठिक एवं शान्ति के एकान्तसेवी अपने
आश्रयदाता स्व० बाबू देवकुमार जी के सजीव संस्मरण में मेरी निर्जीव लेखनी एकाध पंक्ति लिखकर कृतकृत्य होने से भला कब बाज़ आनेवाली है ? और मैं भी अपने को तभी भाग्यशाली समझंगा, पर पाठक इसे मखमल की तोशक पर मूज की बखिया ही समझे। ___ हाँ !!! वह दिन मुझ से भुलाये भी नहीं भूलता, जिस दिन मैली-कुचैली मिरजई पहने, एक बड़ा सा गमछा लिये और मलयज चन्दन ललाट पर लेपे हुए मैंने दो तल्ले की पक्की इमारत के निचले भाग के एक कमरे में श्रीचन्दनमिश्रित केसरके श्रीमुद्रांकित तिलक से अंकित ललाट वाले और सांबूल रसका आस्वाइन करते हुए
आपको शान्त तथा गंभीर मुद्रा में देखा था। बात यह थी कि दो ही तीन महीने के पितृ-वियोग से जर्जर मैं जीविकोपार्जन करने के लिए आरा आया हुआ था। महामहोपाध्याय पं० सकलनारायण शर्मा विद्यावाचस्पतिजी (गुरुवर्य) को शिक्षणशाला (नारायण विद्यालय) में मैं प्रविष्ट भी हो गया था। संस्कृत-छात्रों के अनन्य बाश्रयदाता श्री गुरुजी ने मेरे भोजनादि का समुचित प्रबन्ध भी कर दिया था किन्तु मुझे देनी थी कान्य की मध्यमा परीक्षा। पुस्तकें मेरे पास थीं नहीं। कई छात्रों ने मुझसे कहा कि "आप बाबू देवकुमारजी की कोठी में जाकर उनसे मिलें, वह भापकी पुस्तकें मँगवा देंगे। पढ़ने के निमित्त असमर्थ और होनहार छात्रों की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्हें आप आरा में वदान्य-वरेण्य राजा कर्ण ही सममें।" बस,